Sunday, September 3, 2017

सूर्य

ऋगवेद से 23 सूर्य सूर्यदेव अपने सात अश्वों वाले रथ पर आकाश की परिक्रमा कर रहे हैं। वे जहाँ जाते हैं वही स्थान अदेव- मुक्त हो जाता है। हे सूर्यदेव! हम सतत स्वास्थ्य - सम्पन्न रहते हुए प्रतिदिन आपका दर्शन करें। हे सूर्यदेव! हमारी दृष्टि कभी मंद न हो। हे सूर्यदेव! हम आपको प्रतिदिन  , अपनी स्वच्छ आँखों से सागर के ऊपर उदित होते देखें। हे ओषधियों के प्राण, सूर्यदेव! आप रात्रि का अंधकार दूर करते हुए , जैसे ही अपना प्रकाशध्वज फहराएँ, हम नीरोग एवं स्वस्थ शरीर से आपका दर्शन करें। हे सूर्यदेव! हमारे शरीर का क्षय न हो। हम  सदा स्वावलम्बी रहें। हम कभी दीन- हीन न हों। हे सूर्यदेव! हम मन- वाणी सबसे आपकी किरणों के समान दिव्य और धवल रहें। मदनमोहन तरुण

सूर्य

ऋगवेद से 22 सूर्य हे सवितादेव! आप अपनी स्वर्णाभा प्रकट करें। हे सवितादेव ! आप उदित हों। हे स्वर्णिम बाहुवाले देव! आप प्रकट हों। हे व्यापक आभाशाली! आप प्रकट हों। हे सवितादेव! हम आपकी स्तुति करते हैं। आप हमारी समस्त सुप्त शक्तियों को जाग्रत कर दें। अदितिदेवी आप की ही स्तुति करती हैं। वे आप की ही प्रेरणा से परिचालित होती हैं। मित्र, वरुण और अर्यमा भी आप की ही स्तुति करते हैं। जिस प्रकार इन्द्रियों में मन श्रेष्ठ है ,वैसे ही देवों के बीच आप हैं। सूर्यदेव उदित हुए। रात्रि और अंधकार को दो भागों में विभाजित करते हुए स्वर्णपुरुष प्रकट हुए। सारा प्रसुप्त जगत जाग्रत हो गया। जगतचक्षु प्रकट हुए। उन्होंने अदृश्य को दृश्य कर दिया। भूमि पर अग्निदेव चैतन्य होगये। यज्ञ जाग उठे। पक्षियों के पंख फड़फड़ा उठे। पशु किरणों की भाँति दूर- दूर तक फैल गये। सारा जगत कर्ममय हो गया। प्रशांति कल्लोलमय हो गयी। मदनमोहन तरुण

उषा

ऋगवेद से 21 उषा हे द्युलोकपुत्री उषा! हे नवतरुणी,सम्मोहिनी उषा! हे असंकुचित उषा! आपने अपने पर्वतों से सुदृढ़ किले के द्वार खोल दिये हैं।आपने संसार को अंधबंधनों से मुक्त कर दिया है। हे कर्म, धर्म संचालिका उषा! हे सूर्य, अग्नि और यज्ञ संचालिका उषा! हे उच्चतम स्थानों पर विराजमान देवी! अपने दीप्तिमान रथ से हमारे यज्ञ में पधारें। हे देवी उषा! हे देव-चक्षु-ज्योति! हे श्वेतवस्त्रा, स्वर्णवर्णा! हे किरणों की जननी ! जैसे - जैसे आपके प्रकाश में अभिवर्धन हो, वैसे - वैसे हम भी सतत वर्धमान हों। हे देवी! आपके प्रकाश में हमारे सामने देवताओं के आने-जाने का मार्ग आभासित हो गया है। हे देवी! प्राचीन काल के अंगिरागण एवं क्रांतद्रष्टा कवियों ने अपने द्वारा सर्जित मंत्रों को अपनी साधना से सिद्ध कर गुप्त तेज प्राप्त किया था। उन्होंने ही अपने मंत्रों के द्वारा तेजस्वी उषा को प्राप्त किया था। आज वही श्रेष्ठ विचारोंवाले संगठित हुए हैं। वे सदैव दैवी मर्यादा का पालन करते हैं। आपस में हिंसा या द्वेष नहीं करते। हे देवी उषा!  हम कर्मठ हों, सुविचार सम्पन्न हों, तेजस्वी हों, ऐश्वर्यवान और अपराजेय हों। मदनमोहन तरुण

उषा

ऋगवेद से 20 उषा जो उषाएँ पहले आ चुकी हैं, वर्तमान उषा उन्हीं के मार्ग का अनुसरण कर रही हैं। वे प्राचीन होकर भी नित नवीन हैं। प्रतिदिन जगत को आलोकित करनेवाली उषाओं के स्मृतिकोश में उनका अतीत सुरक्षित है । जो उषाएँ भविष्य में आनेवाली हैं, वे यहाँ कबतक और कहाँ रहेंगी? जिन लोगों ने इसके पूर्व की उषाओं का साक्षात्कार कर लिया है, वे  अब इस संसार में नहीं रहे। जो आज उषा को देख रहे हैं , वे भी अपने पूर्व के दिवंगतों के मार्ग का अनुसरण करेंगे। मात्र उषा देवी ही नित्य हैं। वे सदा आती रहेंगी और प्रकाश फैलाती रहेंगी। प्रतदिन आनेवाली उषा प्राणियों की आयु उसी प्रकार क्षीण करती जाती हैं, जैसे व्याधिनी पक्षियों की संख्या कम करती जाती है। हे उषा ! आपमें सन्निहित जो भी विशिष्टताएँ हैं वे सब हमें अपने जीवनकाल में ही उपलब्ध हों। मित्र, वरुण, अदिति, समुद्र, पृथिवी, दिव्यलोक का संवर्धन करनेवाली समस्त धाराएँ हमारी प्रार्थनाओं को परिपूरित करें। मदनमोहन तरुण

उषा

ऋगवेद से 19 उषा देवी उषा ने अपने समस्त प्रकाशद्वार खोल दिये। इसके साथ ही प्रसुप्ति का समापन हो गया।प्राणी मात्र में नवचेतना की प्राणमय झंकार गूँज उठी।पक्षी अपने नीड़ त्याग कर उन्मुक्त आकाश की ओर उड़ चले।संसार कर्मधर्ममय हो गया।मनुष्य अन्न और ऐश्वर्य की प्राप्ति में लग गये।यज्ञाग्नि जाग्रत हो गयी।मंत्राहुतियों से समस्त दिशायें गूँज उठीं। हे तेजस्वी देवी उषा!आपने मनुष्य को क्षात्रतेज से भर कर उन्हें विजयोन्मुख कर दिया। हे देवी! आप देवत्व का संचार करनेवाली देवमाता हैं। आपका मुख अदिति की भाँति सतेज है। आप यज्ञ की ध्वजा के समान हैं। हे विश्ववंद्य उषे! आप हमें भी आलोकित करें। हमें उत्तम शुभ वाणी प्रदान करें। हमें श्रेष्ठ मार्ग से उत्तम लोकों की ओर ले चलें। हे दीप्तिमती उषा! आप हमारे हृदयों को ज्ञान से आलोकित कर दें। हे मनुष्यो!आलस्य त्याग कर उठो।उन्नति के मार्ग पर चलो। उषा ने हमें नूतन ऊर्जा से परिपूरित कर दिया है।मोह रूपी अंधकार से मुक्त होकर, देवी उषा द्वारा प्रशस्त मार्ग पर चलो। हे देवी उषा! आप हमें आरोज्ञवर्धक संजीवनी से उद्दीप्त कर दीजिए। मदनमोहन तरुण

द्यावा-पृथिवी

ऋगवेद से 18 उषा उषा और रात्रि सूर्यदेव की सखाओं की भाँति हैं।वे एक दूसरे के प्रभाव का शमन करती हुई भी सहगामिनी हैं। वे अविनाशी और सतत यात्री हैं। रात्रि और उषा दोनों बहनें हैं। उनका रूप-रंग और स्वभाव  भिन्न है।एक कृष्णवर्णा हैं और दूसरी गौरवर्णा।वे एक-दूसरे का सम्मान करती हैं।जिस प्रकार बड़ी बहन के आने पर उनके सम्मान में छोटी बहन अपना आसन छोड़ देती हैं, उसी प्रकार उषा का पदचाप सुनते ही रात्रि अपना स्थान छोड़ देती है। प्रकाशमयी उषा, मृतकों के समान प्रसुप्त संसार में प्राण-प्रदीप्त कर  सब को नवजीवन से भर देती हैं। सदा अभिवृद्धिमान ,अपने -परायों के प्रति समान भाववाली मनोमय उषा , आनंद का विस्तार करती हुई सबको आह्लादित करती हैं। जैसे गोशाला से सभी पशु एक साथ निकल कर बाहर चारों ओर फैल जाते हैं, जैसे जलवृद्धि से उफनती - उमगती नदियाँ समस्त बंधनों से मुक्त होकर अपना विस्तार करती चल पड़ती हैं, उसी प्रकार उषा की रश्मियाँ समस्त दिशाओं को आच्छादित कर आलोकमय बना देती हैं। हे उषा! आपके आते ही यज्ञकर्ता अग्नि प्रदीप्त करने लगे। हे उषा!आपने सूर्योदय के पूर्व ही संसार को प्रकाशित कर दिया। मदनमोहन तरुण

द्यावा-पृथिवी

ऋगवेद से 17 उषा अरुणाभावाले अश्वों से सुशोभित,स्वर्णरथ पर आसीन, मोहिनी उषा का आगमन हो गया। सम्मोहक मुस्कानवाली उषा का लावण्य उसके पारदर्शी वस्त्र के भीतर से दृश्यमान है। लालित्यमयी नवयौवना उषा अपने सुडौल वक्ष का प्रदर्शन करती हुई आगे बढ़ रही है। श्वेतवस्त्रधारिणी गौरवर्णा उषा, सू्र्य की रश्मियों सी शोभायमान हो रही है। नर्तकी की भाँति सुसज्जिता सुंदरी उषा अनेक मुद्राएँ धारण करती, अपने सम्मोहक शरीर का प्रदर्शन करती सबको लुभा रही है।उसका वक्ष खुला है जो पोषण का स्रोत है। अग्नि के समान प्रदीप्त होती उषा ,अंधकार का समापन करती आकाश पर छा गयीं।वे सूर्य की भाँति तेजस्वी हैं। विदुषी नारी की भाँति उषा स्वच्छंद रूप में, अनवरोध समस्त दिशाओं में यात्रा करती हैं। उन्होंने अपना प्रकाशध्वज फहरा दिया है। तीनों लोकों में प्रकाशित होनेवाली उषा अविनश्वर हैं। हे विश्ववंद्य उषे! आप हमें भी आलोकित करें। मदनमोहन तरुण

द्यावापृथिवी

ऋगवेद से 16 द्यावा-पृथिवी उत्तम पंखोंवाला पक्षी सूर्य दिव्यलोक के मध्य में स्थित है।किंतु मनुष्य जलरूपी रात्रि के गहन अंधकार में तैरता हुआ ऊबडूब हो रहा है। आप उसे प्रकाश प्रदान करें।भेड़ियों से उसकी रक्षा करें।ज्ञान उसे भयमुक्त करे। नदियाँ ऋतुओं के अनुकूल चलने को प्रेरित करती हैं।सूर्यदेव सत्य के प्रकाशक हैं। हे अग्निदेव! देवताओं के साथ आपकी घनिष्ठता सर्वविदित है।आप ज्ञानसम्पन्न मनुष्यों की ही भाँति हमारे यज्ञ में पधार कर देवों का आवाहन करें। मंत्ररूपी स्तोत्रों की रचना वरुणदेव करते हैं। हम इन स्तोत्रों से मार्गदर्शक प्रभु की प्रार्थना करते हैं।इससे हृदय में सद्बुद्धि प्रगट होती है और सत्य का नवीन मार्ग प्रशस्त होता है। हे देवों! सूर्यदेव का प्रकाशमय मार्ग दिव्यलोक में स्तुतियों के योज्ञ है। हे मनुष्य वह सर्वसाधारण की पहुँच से परे हैं।हे पृथिवी देवी! आप हमारी प्रार्थना का अभिप्राय समझें और हमें ऊर्ध्वमार्ग की ओर ले चलें। इंद्रदेव अपने सैनिकों के साथ संग्राम में हमें विजयी बनाएँ। वे हमारे शत्रुओं को समाप्त कर दें। मित्र,अदिति,सिंधु,पृथिवी और द्युलोक, सभी हमारी स्तुति का अनुमोदन करें। मदनमोहन तरुण

द्यावा-पृथिवी

ऋगवेद से 15 द्यावा -पृथिवी पिछले यज्ञ के सोम-निष्पादन-काल में हमने स्तोत्रों का पाठ किया था , फिर भी व्यथाओं, चिंताओं ने हमें चारों ओर से  इस प्रकार घेर लिया है , जैसे पिपासित हिरणों को भेड़िये चबा - चबा कर खाते हैं। हे द्यावा! हे पृथिवी! आप हमारी व्यथाओं पर ध्यान देते हुए उसका निवारण करें। दो सौतों की तरह कामनाएँ हमें सता रही हैं। जैसे चूहे माड़ी लगे धागों को चबा जाते हैं वैसे ही मन में व्याप्त दुश्चिताएँ हमें सता रही हैं। हे द्यावा! हे पृथिवी! आप हमारी व्यथाओं पर ध्यान दें। आप उनका निवारण करें। सूर्य की सात किरणें जहाँ तक व्याप्त हैं, हमारे नाभिक्षेत्र, प्राणतत्व, का भी वहाँ तक प्रसार है।जल के पुत्र त्रित भी यह जानते हैं। हमें सब से मैत्रीभाव प्राप्त हो। हे द्यावा!हे पृथिवी! आप हमारी प्रार्थनाओं पर ध्यान दें।आप हमें दुश्चिंताओं से मुक्त करें। अग्नि, सूर्य , वायु , चंद्रमा और विद्युत पाँच शक्तिशाली देव जो द्युलोक में निवास करते  हैं , वे हम पर कामनाओं की वृष्टि करते हैं। आवाहन करने पर वे हमारे यज्ञस्थल पर पधारते हैं और तृप्त हो कर  अपने स्थान पर लौट जाते हैं। मन के साथ इंद्रियाँ भी उपासना में तल्लीन हो जाती हैं। हे द्यावा!हे पृथिवी! आप हमारी प्रार्थना का अभिप्राय समझें। मदनमोहन तरुण

द्यावा-पृथिवी

ऋगवेद से 14 द्यावा - पृथिवी अंतरिक्ष में चंद्रमा तथा उससे ऊपर द्युलोक में सूर्य सतत धावमान हैं।अंतरिक्ष वाष्पमय है।पृथिवी का प्रभाव वायुमण्डल तक ही सीमित है।इस वायुमण्डल के ऊपर अंतरिक्ष का आरंभ होता है। हे द्युलोक एवं पृथिवी! हमसब उसके ऊपर की सुनहली विद्युत तरंगों को भी जानें। जो लोग किसी उद्देश्य से प्रेरित हो कर कार्य करते हैं, वे उसे प्राप्त कर लेते हैं। युवती उपयुक्त पति प्राप्त कर लेती है और दोनों मिलकर संतान प्राप्त कर लेते हैं। हे द्युलोक! हे पृथिवी ! आप हमारी भावनाओं पर ध्यान दें।आप हमारा अभिवर्धन करें। हे देवगण! हमारी तेजस्विता में कभी कोई कमी न हो।हमारा लक्ष्य सदा अग्रगामी हो।हमारा निवास सदा ऐसे स्थान पर हो, जहाँ सोम भी हों।हे पृथिवी ! आप हमारी भावनाओं पर ध्यान दें।आप हमारा अभिवर्धन करें। हे अग्निदेव! हमारे सरल भावरूपी शाश्वत नियम कहाँ लुप्त हो गये? वे कौन से नये पुरुष हैं , जो प्राचीन नियमों का निर्वाह करते हैं? हे द्युलोक!हे पृथिवी! हमारी जिज्ञासाओं को शांत करें। हे देवों! पृथिवी, अंतरिक्ष एवं द्युलोक , इन तीनों में से आपका निवासस्थान द्युलोक है।आपका मायामुक्त ,सच्चा स्वरूप क्या है? आपने सृजनयज्ञ में जो आहुति डाली, वह कहाँ है?हे द्युलोक! हे पृथिवी! आप हमारी जिज्ञासाएँ शांत करें। आपके सत्य-निर्वाह के नियम क्या हैं? वरुण की व्यवस्था क्या है? सूर्य(अर्यमा) के मार्ग कौन - कौन से हैं?हे पृथिवी आप हमारी भावनाओं पर ध्यान दें।आप हमारा अभिवर्धन करें ताकि हम दुष्ट शक्तियों से सुरक्षित रहें। मदनमोहन तरुण

द्यावा-पृथिवी

ऋगवेद से 13 द्यवा-पृथिवी कौन-सा पथ देवों तक पहुँचता है? कौन इसे निश्चितरूप से जानता है? हे द्यावा-पृथिवी ! पुरातन ऋषियों ने आपके रहस्यों को जानकर आपकी स्तुति की है। दूरद्रष्टा मनुष्य सूर्य की भाँति द्यावा-पृथिवी को चारो ओर से देखते हैं। द्यावा-पृथिवी एक दूसरे के समाकर्षण में बँधे हैं। वे  अलग-अलग दिखाई देते हैं, परंतु वे जुड़वाँ बहनों की भाँति हैं। उनका कभी क्षय नहीं होता। विराट पुरुष के पाँवों से निर्मित पृथ्वी विभिन्न रूप धारण करती है।देवों के नियम शाश्वत और सर्वोपरि हैं। प्रकृति पूर्णत:अनुशासित है। स्थाई संवत्सर, वसंत,गृष्मादि छह ऋतुओं का आवागमन होता रहता है।सभी सूर्य की किरणों से प्रभावित होते हैं। सूर्य सृजन, पोषण और परिवर्तन के कारण हैं। वे द्यु,अंतरिक्ष और पृथ्वी सबमें व्याप्त हैं। वे अपनी प्राणदा किरणों द्वारा ओषधियों में प्राण और ऊर्जा का संचार करते हैं।सूर्य ही जल,प्राण,पर्जन्य के रूप में पृथ्वी को परितृप्त करते हैं। स्वर्ग और अंतरिक्ष सूक्ष्म हैं।तीन लोकों में पृथ्वी ही प्रत्यक्ष और दृश्य है। तीनो लोक सतत गतिशील हैं। हे मनुष्य! सुंदर रूपवाले दिन और रात्रि निरंतर गतिशील हैं। रात्रि के कृष्णवर्णा होने के कारण दृश्य उसमें आकरविहीन भासित होता है , जबकि दिन के प्रकाश में सबके रूपाकार प्रकट हो जाते हैं। दिन और रात्रि दोनो बहने हैं।एक गोरी है दूसरी काली। वे एक -दूसरे का आदर करती है। एक के आने पर दूसरी अपना आसन खाली कर देती है। गर्जन करते हुए मेघ पृथ्वी में अपना वीर्य-स्थापित कर उसे उर्वरा बनाते हैं जिससे तृप्तिदायक, रसपूर्ण, प्राणपोषक वनस्पतियों का जन्म होता है। जिस प्रकार हितैषी राजा सदैव अपनी प्रजा के साथ रहता है,उसी प्रकार देवेन्द्र पृथ्वी के साथ रहते हैं। मदनमोहन तरुण

मरुतगण

ऋगवेद 12 मरुतगण हे तेजस्वी मरुतगण ! जिस प्रकार आपने जलाभिलाषी ऋषि गौतम के लिए जल की धारा बहा दी , उसी प्रकार हमारी कामनाएँ भी पूर्ण करें। हे जलधारी तरुण, हे महाज्ञानी, हे विपुल ऐश्वर्य के स्वामी, हे कीर्तिमान, हे मुष्टियुद्ध के ज्ञाता, हे अविनाशी, हे क्रांतदर्शी! हमें आपका सतत संरक्षण प्राप्त हो।हम गो, अश्व, रथ, स्वर्ण, रत्न, उत्तम संतान आदि से परिपूर्ण, सुखी, समृद्ध, ऐश्वर्यशाली , प्रभुत्वसंपन्न, बलशाली और अपराजेय हों। हे मरुतो! जैसे मनुष्यों से भरी नौका नदी के तरंगित जल पर बढ़ती चली जाती है , उसी प्रकार मरुदगण अपनी असाधारण शोभा और गति के कारण दूर से ही दिखाई देने लगते हैं। हे मरुतो!आप वृष्टि से तेजस्वी सूर्य को भी धूमिल कर देते हैं। हे सुजन्मा, पृथ्वीपुत्र! आप मानवों के हतैषी हैं। हे मरुद्गण! आप पंक्तिबद्ध उड़नेवाले पक्षियों की भाँति उच्चतम पर्वत शिखरों से होते हुए आकाश की सीमाओं तक उड़ान भरते हैं।आपके इन अद्भुत कार्यों से देवता और मनुष्य, सभी परिचित हैं। हे सम्पूर्ण विश्व के नियंता अग्निदेव! आप अपनी तेजस्वी ज्वालाओं से युक्त होकर,अत्यंत शोभायमान, आभामय गणों के साथ , समूह में रहनेवाले, उन्चास पवन के.नाम से विख्यात, पवित्र, तृप्तिकर्ता, एवं आयुवर्धक मरुदगणों के साथ सोमपान कर प्रसन्न हों। मदनमोहन तरुण

मरतगण

ऋगवेद से 11 मरुतगण हे मरुतो! ऐसा कोई स्थान नहीं, जो आपके लिए अगम्य हो।आप सर्वत्र विद्यमान हैं। हे जलसम्पन्न मरुतो! आप अंतरिक्ष से सागर को आंदोलित और प्रेरित करते हुए जल बरसाते हैं। हे मरुत! आप वृषभ की भाँति उत्पादन में समर्थ एवं विशिष्ट हैं। दुर्धर्ष वृषभ के समान मरुत अपने प्रचण्ड बल से शत्रुओं का विनाश करते हैं।गर्जन करते हुए वे  बादलों पर अपने   प्रचण्ड प्रहार से वृष्टि करते हैं। हे मरुतो! आप अपने रथ में अरुणिम अथवा रोहित वर्ण के मृगों को नियोजित करें अथवा उससे भी तीव्रधावी एवं समर्थ अश्वों को रथ की धुरी खींचने के लिए नियुक्त करें। हम मरुतों के विविध अन्नों से भरे रथों का आवाहन करते हैं जिनमें रत्नों एवं द्रव्यधारिणी उनकी माता विराजमान हैं। हम मरुतों के रथ में शोभायमान तेजस्वी संघशक्ति का आवाहन करते हैं जिसमें सुजाता और सौभाग्यशालिनी, कल्याणकारिणी देवी महिमापूर्वक विराजमान हैं। हे श्यावाश्य,धूम्रयुक्त अग्निस्तुत वीर मरुद्गण, शशीयशी अर्थात यज्ञ की तरंगित अग्नि अपनी बाँहें फैला कर आपका स्वागत करती है। हम विददस्व के पुत्र तरंत की भी स्तुति करते हैं जो शशीयसी के अर्धांग हैं। हे रात्रिदेवी!आप मरुतदेवों के प्रति समर्पित हमारी स्तुतियाँ उनतक वैसे ही पहुँचाएँ जैसे रथी गंतव्य स्थान तक जाते हैं। मदनमोहन तरुण

मरुतगण

ऋगवेद से 10 मरुतगण हे रथों में शोभायमान मरुतगण! आपके कंधों पर आयुध है, आपके पाँव कड़ों से सुशोभित हैं, आपके वक्षस्थल पर रमणीक हार हैं, आपकी भुजाओं में अग्निसदृश प्रभामय वज्र और आप शीर्ष पर शिरस्त्राण धारण किये हुए हैं। वे अपने लाखों अश्वों से जुते रथ पर आसीन  जलधारक, नेतृत्वकर्ता, बारह आदित्यों में से एक अर्यमा के समान वेगवान, उग्र गर्जन करते हुए विजेता की भाँति तीव्र वेग से आगे बढ़ते हैं। यह भूमि मरुतों के लिए प्रशस्त मुक्त मार्ग है। पृथ्वी की ही भाँति अंतरिक्ष के भी समस्त मार्ग उनके लिए अबाधित हैं। आप विद्युत के समान तेजयुक्त, आयुधयुक्त, वेगवान, पर्वतों के प्रकम्पक,वज्र-प्रक्षेपक,उग्रबलसम्पन्न ,गर्जनयुक्त हैं।आप जल प्रदान करने के लिए बार-बार आविर्भूत होते हैं। हे सर्वसमर्थ रुद्रपुत्र मरुतो! आप दिन हो या रात्रि सतत भ्रमणशील रहें।आप अंतरिक्ष के समस्त लोकों में गमनशील रहें। नौकाएँ जैसे नदियों में गमनशील रहती हैं, वैसे ही आप विभिन्न प्रदेशों में गमन करें। हे शत्रुओं को कंपित करनेवाले मरुद्गण! हमारी हिंसा न करें। हे मरुतगण! आप पृथ्वी और द्युलोक के नियामक हैं। हे तेजस्वी नेत्रृत्व प्रदाता मरुतगण! सूर्यदेव के उदित होने पर आप हर्षित होते हैं। तीनो लोकों में सतत धावित आपके अश्व कभी नहीं थकते। हे मरुतो! जिस प्रकार सूर्यदेव अपनी दीप्ति का दूर-दूर तक प्रसार करते हैं।अश्व जिस प्रकार दूर-दूर तक गमन करते हैं, उसी प्रकार आपकी कीर्ति, महत्ता और शक्ति को स्तोतागण दूर-दूर तक विस्तारित करते हैं। हमारे स्तोत्र आप तक पहुँचें, हम आकाश में अवस्थित अक्षत देदीप्यमान नक्षत्रों की भाँति सदा सुखी और ऐश्वर्यवान रहते हुए सौ वर्षों का उपयोगी जीवन जिएँ। मदनमोहन तरुण

अग्नि

ऋगवेद से 9 मरुतगण हे नेतृत्वकर्ता! आप सब कौन हैं? आपके अश्व कहाँ हैं? उनकी लगाम कहाँ है? उनकी पीठ पर जीन कहाँ है? उनके नथनो में डाली जानेवाली रस्सी कहाँ है? मरुतगण अनेक मार्गों से गमन करते हैं। जो सामने से गमन करते हैं वे  'आपथय:' हैं। जो सभी मार्गों से गमन करते हैं, वे ' विपथय:'हैं। जो गुहा मार्ग से गमन करते हैं वे' अंत:पथा:' हैं। जो अनुकूल मार्ग से गमन करते हैं वे ,अनु पथा: के नाम से विख्यात हैं। वे कभी अग्रणी होकर, कभी सहयोगी होकर, कभी दूर से संसार को धारण करते हैं। इन मरुदगणों में न कोई ज्येष्ठ है, न कनिष्ठ। उनके पिता रुद्र और पृथ्वी मात्रृ स्वरूपा हैं। वे द्युलोक के शीर्ष, मध्य एवं अधोभाग में स्थित रहते हैं। हे रुद्रपुत्र मरुद्गण! आप बिन्दुचित्रित मृग - अश्वों से जब दौड़ लगाते हैं, तब तब आपके भय से वन, मेघ और पृथ्वी सब कम्पायमान हो जाते हैं। आपके भीषण गर्जन से पर्वत काँप उठते हैं। द्युलोक शिखर काँप उठता है। हे मरुतगण! आप जिस पर प्रसन्न होते हैं, उसे कौन नहीं जानता! हे मरुतगण!आप जिस पर अप्रसन्न होते हैं, उसे कौन नहीं जानता! हे ऋषिगण! विद्युतरूपी आयुधों से दीप्तिमान , महान, क्रांतदर्शी, महत मेधासम्पन्न मरुतों को हर्षित करनेवाली स्तुतियों से उनका आवाहन, अभिवादन करें। मदनमोहन तरुण

अग्नि

ऋगवेद से 8 अग्नि हे अग्निदेव! हम श्रेष्ठ विचारकों द्वारा रचित मंत्रों द्वारा आपका आवाहन करते हैं। हे अग्निदेव! प्रदीप्त उच्चगामी किरणों से शोभायमान आप यज्ञ की ध्वजा हैं। हे पूजनीय अग्निदेव!आप यज्ञकार्यों में, शत्रुओं के बीच रणभूमि में गर्जन करते हुए हमारा नेत्रृत्व करते हैं। मनु के निमित्त मातरिश्वा वायु ने सुदूर स्थान पर आपको प्रदीप्त किया। जिस प्रकार लम्बे समय की यात्रा पर जानेवाला मनुष्य अपना घर बन्द कर उसकी चावी रक्षार्थ अपने मित्र को सौंप जाता है, उसी प्रकार देवता अपनी अनुपस्थिति में पृथ्वी के प्राणियों की रक्षा के लिए आपको हमसबों के बीच स्थापित कर गये हैं। हे वसुओ! हे आदित्यो! हे विश्वेदेवो! यह यज्ञाग्नि देवद्वार है, देवताओं से सम्पर्क के लिए इनका सहारा लें। इस देवमुख को घी से सतत सिंचित रखें।इसे कभी जीर्ण न होने दें। वस्त्र बुनते समय निकलनेवाली ध्वनि हमें उत्तम कार्यों में सतत रत  रहने और अभिवृद्धि की प्रेरणा देती है। उषादेवी और देवी नक्ता की उपस्थिति हमारे यज्ञस्थल को सौंदर्य प्रदान करती है।ये प्रेरणादायी देवियाँ काल-विभागरूपी फैले ऊन के धागे बुनती हुई, मानवजीवन रूपी वस्त्र को पूर्णता प्रदान करती हैं। अनेक श्रेष्ठ गुणों से विभूषित देवी भारती, देवी इला,देवी सरस्वती हमारे यज्ञस्थल पर विराजमान रह कर हमारी रक्षा करें। हे यज्ञकुंड में सतत प्रज्वलित दिव्य, दीप्तिमान अग्निदेव! आप हमें अपने ही समान सुवर्णाभायुक्त कांति ,तेजस्विता और प्रखरता प्रदान करें। मदनमोहन तरुण

अग्नि

ऋगवेद से 7 अग्नि हे अग्निदेव!आपके रथ में श्याम,लाल तथा शुक्ल वर्ण के अश्व जुते हैं।आप अपने उसी दिव्य रथ से सर्वत्र यात्रा करते हैं। आप अपनी असंख्य ज्वालाओं से वनों को प्रकाशित करते हैं। यात्रामार्ग में आप निकटस्थ और दूरस्थ पर्वत शिखरों पर विश्राम करते  हुए, गर्जनपूर्वक शत्रुओं का संहार करते हुए पृथ्वी की परिक्रमा करते हैं।आप जिधर से गुजरते हैं, उधर रास्ते बन जाते हैं। आप हमें उत्तम नेतृत्व प्रदान करते हुए श्रेष्ठ मार्गों पर ले जाते हैं। हे परम तेजस्वीअग्निदेव! कोई आपकी अवहेलना नहीं कर सकता। जैसे प्यासा व्यक्ति पानी पीता है, वैसे ही आपकी ज्वालाएँ वनों का पान करती हैं और आपके रथ में जुते अश्वों की भाँति शब्द करती हुई आगे बढ़ती हैं। यज्ञ के नायक अग्निदेव में सात रश्मियाँ परिव्याप्त हैं।आठवीं रश्मि वे स्वयं हैं। जिस प्रकार धुरी के चारो ओर चक्र घूमते हैं , उसी प्रकार अग्निदेव के चारों ओर हमारी स्तुतियाँ घूमती हैं। जो मनुष्य अग्निदेव के इस सनातन स्वरूप को जानता हैं , वह वृक्ष की भाँति ऊँचाइयों की ओर वृद्धिमान होता हुआ उसकी शाखाओं की भाँति चारों ओर से प्रशस्त होता जाता है। जिस प्रकार जल की प्रखर धारा अपने सामने आनेवाले विशाल चट्टानों को भी पार कर जाती हैं, उसी प्रकार हे अग्निदेव!आपके संरक्षण में हम भी प्रमादी से प्रमादी,महाबलशाली शत्रुओं के समूह को भी विजेता की भाँति पार कर जाएँ। देवताओं और मनुष्यों के शत्रु कभी हम पर स्वामित्व प्राप्त न करें। हम तेजस्वी हों, विजेता हों, ऐश्वर्यशाली हों। मदनमोहन तरुण

अग्नि

ऋगवेद से 6 अग्नि हे मनुष्यो! द्युलोक से प्रकट एवं प्रकाशमान अग्निदेव परम पवित्र हैं। वे वड़वाग्नि के रूप में जल से, पाषाण और अरणि घर्षण से,वन में दावानल से तथा ज्वलनशील ओषधियों  में से अपना तेज  प्रकट करते हैं। हे अग्निदेव! आप द्युलोक के प्राणदाता रुद्र हैं। आप अन्नाधिपति मरुतों के बल हैं।आप वायु के रथ पर आसीन गृहस्थों के घर जाते हैं।आप पोषणकर्ता पूषादेव हैं। हे रत्नधारणकर्ता सविता देव! आप दानदाताओं के लिए अदिति हैं। वाणीरूपी स्तुतियों से विस्तार पाने के कारण आप होता तथा भारती हैं। सैकड़ों वर्षों की आयु प्रदान करने में सक्षम होने के कारण आप इला हैं। आप सर्वश्रेष्ठ पोषक अन्नदाता हैं।आप सतत वर्धमान हैं। आप भगदेव हैं। आप मित्र, हितैषी, तथा विघ्नविनाशक बनकर हमारी रक्षा करें। हे अंतरिक्ष से वृष्टि करने में सक्षम अग्निदेव! आप पृथिवी और आकाश के बीच ज्योति-सेतु की भाँति हैं। हे अग्निदेव! हमारा उच्चतम ज्ञान, धन समाज के पाँचो वर्णों को - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और निषादों में सूर्य की भाँति प्रकाशित हो। - मदनमोहन तरुण

अग्नि

ऋगवेद से 5 अग्नि हे धूमध्वजधारी अग्नि!हे सात ज्वालाओं से धधकते, दीप्तिमान! हे चिर तरुण,तेजस्वी! हे संग्राम-शत्रु-विजेता अग्नि! हम आपका आवाहन करते हैं। हे अग्निदेव!आप हमारे यज्ञ में देव-पत्नियों को भी साथ लेकर आएँ। आप हमारी रक्षा के लिए अग्निपत्नी होत्रा, आदित्यपत्नी भारती, वरणीय वाग्देवी धिषणा को भी साथ लाएँ। हम सुंदरी रात्रि और उषा देवियों को आमंत्रित करते हैं। हम अपने कल्याण की कामना से एवं सोमपान के लिए इंद्राणी, वरुणपत्नी वरुणानी और अग्निपत्नी आग्नायी का आवाहन करते हैं। हम समस्त प्राणियों के आश्रय, सृष्टि के चक्षु, तेजस्वी सूर्यदेव का आवाहन करते हैं। हे अग्नि! आप मरुदगणों को भी साथ लाएँ। मरुद्गण, जो पर्वत सदृश मेघों को एक स्थान से सूदूरवर्ती स्थानों पर ले जाते हैं, जो शांत समुद्रों को मथ कर ज्वारिल कर देते हैं, जो सूर्यरश्मियों से परिव्याप्त समुद्र को आपने ओज से द्युतिमान कर देते हैं। हे अग्नि! आप उन्हें भी अपने साथ लाएँ। उन ऋभुदेवों को भी साथ लाएँ जिन्होंने अपने माता- पिता को फिर से जवान बना दिया। जिन्होंने कुशलतापूर्वक इंद्रदेव के अश्वों की रचना की , जो शब्दोचारण मात्र से वेगवान हो जाते हैं।जिन्होनें अश्विनीकुमारों के लिए सर्वत्रगामी रथ बनाया, जिन्होंने गौवों को अधिक दूध देनेयोग्य बनाया। जिन्होंनें त्वष्टादेवनिर्मित एक चमस को चार प्रकारों में विनियोजित कर दिया। हमारी स्तुतियों से प्रसन्न ऋभुदेव , सोमयाग करनेवाले प्रत्येक याजक को तीनो कोटि के सप्तरत्न ,अर्थात यज्ञ के तीनो विभागों( हविर्यज्ञ, पाकयज्ञ, तथा सोमयज्ञ) के समस्त फल प्रदान करें। हे अग्निदेव! आप अतुलनीय कार्यों के कर्ता हैं।आप वह सब करने में समर्थ हैं जो देवता और मनुष्य किसी के लिए भी करना सम्भव नहीँ हैं।आप रक्षक भी हैं और सर्व संहारक भक्षक भी। हे अग्निदेव! आप परम बलशाली , अजेय और प्रचण्ड सूर्य की भाँति प्रकाशक हैं। आप की ज्वालाएँ रात्रि को भी आलोकित करती हैं। हमारे कर्म सगठित हों, हमारी सद्बुद्धियाँ संगठित हों।हम अग्रगण्य हों, दानी बनें। - मदनमोहन तरुण

इन्द्र

ऋगवेद से 4 अग्नि मैं अग्नि की स्तुति करता हूँ। हे अग्नि!तुम हमारे गायित्री छन्द की स्तुति से प्रसन्न होकर हमारे यज्ञ में पधारो। हे चमकीली लटोंवाली!हे दीप्त ज्वालाओंवाली! हे वृद्धावस्था रहित अग्नि! तुम हमें बंधनों से मुक्त करो। हे अग्नि! तुम स्वयं देव हो और अन्य देवता तुम्हारे मित्र हैं। कण्व ने अग्नि को सूर्य से लेकर पृथ्वी पर प्रज्वलित किया है। संसार के हित के लिए तुम सर्वत्र अनेक रूपों में विद्यमान हो।तुम मनुष्यों की नाभि में जठराग्नि की भाँति अवस्थित होकर उनका जीवन धारण करती हो, तुम धरती की नाभि में अवस्थित हो, तुम धरती और आकाश के बीच प्रज्वलित हो, जलवर्षा के लिए मनुष्य अग्निरूपा विद्युत की सेवा करते हैं। औषधि,पत्र, पुष्प,फल, जल,सूर्य,पृथ्वी,अंतरिक्ष,आकाश सब को अग्नि धारण करती है। यह रात्रि के गहन अंधकार को भी प्रकाशित करती है, यह बादलों का निर्माण कर जल बरसाती है। अग्नि उषा और सूर्य के समान सभी पदार्थों में सन्निहित है।जब वायु से अग्नि का मंथन होता है , तब शुभ्रवर्णा अग्नि यज्ञ में प्रकट हो जाती है।जैसे सात नदियाँ सागर को प्राप्त करती हैं,वैसे ही समस्त हव्य अग्नि को प्राप्त करते हैं। हे अग्नि! अन्न का शुद्ध तेज हमारी जठराग्नि को प्राप्त हो,वह अन्न पच कर वीर्य बनें और उससे हमें दिव्य संतानें प्राप्त हों।बुढ़ापा हमसे सदा दूर हो। हे अग्नि! तुम शत्रुओं के बीच धधकती हुई हमारी रक्षा करो। हे अग्नि! तुम हमारा नेतृत्व करो। हे अग्नि हमारे शत्रुओं को स्थानच्युत करो। हमारे यजमान को सुख दो, पूर्ण जीवन दो, तेजस्वी संतान दो। हमारे पास के और दूर के सभी शत्रुओं को नष्ट कर दो। हम तेजस्वी, बलशाली, बुढ़ापे से मुक्त, धनवान, प्रदीप्त और प्रकाशमय बनें। -मदनमोहन तरुण

इन्द्र

ऋगवेद से 3 अग्नि मैं अग्नि की स्तुति करता हूँ। हे अग्नि!तुम हमारे गायित्री छन्द की स्तुति से प्रसन्न होकर हमारे यज्ञ में पधारो। हे चमकीली लटोंवाली!हे दीप्त ज्वालाओंवाली! हे वृद्धावस्था रहित अग्नि! तुम हमें बंधनों से मुक्त करो। हे अग्नि! तुम स्वयं देव हो और अन्य देवता तुम्हारे मित्र हैं।कण्व ने अग्नि को सूर्य से लेकर पृथ्वी पर प्रज्वलित किया है।संसार के हित के लिए तुम सर्वत्र अनेक रूपों में विद्यमान हो।तुम मनुष्यों की नाभि में जठराग्नि की भाँति अवस्थित होकर उनका जीवन धारण करती हो, तुम धरती की नाभि में अवस्थित हो, तुम धरती और आकाश के बीच प्रज्वलित हो, जलवर्षा के लिए मनुष्य अग्निरूपा विद्युत की सेवा करते हैं।औषधि,पत्र, पुष्प,फल, जल,सूर्य,पृथ्वी,अंतरिक्ष,आकाश सब को अग्नि धारण करती है। यह रात्रि के गहन अंधकार को प्रकाशित करती है, यह बदलों का निर्माण कर जल बरसाती है। अग्नि उषा और सूर्य के समान सभी पदार्थों में सन्निहित है।जब वायु से अग्नि का मंथन होता है , तब शुभ्रवर्णा अग्नि यज्ञ में प्रकट हो जाती है।जैसे सात नदियाँ सागर को प्राप्त करती हैं,वैसे ही समस्त हव्य अग्नि को प्राप्त करते हैं। हे अग्नि! अन्न का शुद्ध तेज हमारी जठराग्नि को प्राप्त हो,वह अन्न पच कर वीर्य बनें और उससे हमें दिव्य संतानें प्राप्त हों।बुढ़ापा हमसे सदा दूर हो। हे अग्नि! तुम शत्रुओं के बीच धधकती हुई हमारी रक्षा करो। हे अग्नि! तुम हमारा नेतृत्व करो। हे अग्नि हमारे शत्रुओं को स्थानच्युत करो। हमारे यजमान को सुख दो, पूर्ण जीवन दो, तेजस्वी संतान दो। हमारे पास के और दूर के सभी शत्रुओं को नष्ट कर दो। हम तेजस्वी, बलशाली, बुढ़ापे से मुक्त, धनवान, प्रदीप्त और प्रकाशमय बनें। -मदनमोहन तरुण

इन्द्र

ऋगवेद से 2 इन्द्र हे याचको! आप इन्द्रदेव की प्रसन्नता के लिए श्रैष्ठ, सुखकारी और मर्मस्पर्शी स्तोत्रों का गायन करें। हे स्तोता! जिस प्रकार धन के इच्छुक समुद्र - मार्ग का  अनुसरण करते हुए दूर-दूर की यात्रा करते हैं, उसी प्रकार हविदाता यजमान इन्द्रदेव की ओर उन्मुख होते हैं। जैसे नदियाँ पर्वतों को घेरती हुई आगे बढ़ती हैं, उसी प्रकार आपकी सारगर्भित स्तुतियाँ भी महाबलशाली, यज्ञों के स्वामी तेजस्वी महेन्द्र के चारो ओर गुंजायमान  हों, उन्हें श्रद्धापूर्वक आवृत कर लें। हे मनुष्यो! अपने जाज्वल्यमान वज्र के प्रहार से महाघोषकारी बादलों से जल खींच कर प्यासी धरित्री को सस्यश्यामला बनानेवाले, पृथ्वीलोक और द्युलोक में सामंजस्य के समायोजक,शारीरिक और संकल्पबल से सम्पन्न महातेजस्वी इन्द्रदेव को अपनी स्तुतियाँ समर्पित करें। हे इन्द्रदेव! आप घी, दही से युक्त, श्रद्धापूर्वक तैयार सोम ग्रहण करें।यह ओजदायी और प्रसन्नतावर्धक है। हे इन्द्रदेव! आप रक्षणीय की रक्षा करें। हमसे ईर्ष्या करनेवाले, हमारे निंदकों को हमसे दूर रखें। हमें कोई किसी प्रकार की क्षति न पहुँचाए। हम बलशाली हों,उत्साही हों, तेजस्वी, यशस्वी हों। हमारे पास से वृद्धत्व दूर रहे। हम सदबुद्धि , ज्ञान और धन से सम्पन्न रहें। निराशा और आलस्य हमसे दूर रहें। हे अटल,प्रचण्ड,अविजेय इन्द्र ! हमारे शत्रु कभी हम पर हाबी न हों। हे इन्द्र! हमारे स्तोत्र - गायन आप तक पहुँचें और आपको प्रसन्नता प्रदान करें। - मदनमोहन तरुण

इन्द्र

ऋगवेद से 2 इन्द्र हे याचको! आप इन्द्रदेव की प्रसन्नता के लिए श्रैष्ठ, सुखकारी और मर्मस्पर्शी स्तोत्रों का गायन करें। हे स्तोता! जिस प्रकार धन के इच्छुक समुद्र - मार्ग का  अनुसरण करते हुए दूर-दूर की यात्रा करते हैं, उसी प्रकार हविदाता यजमान इन्द्रदेव की ओर उन्मुख होते हैं। जैसे नदियाँ पर्वतों को घेरती हुई आगे बढ़ती हैं, उसी प्रकार आपकी सारगर्भित स्तुतियाँ भी महाबलशाली, यज्ञों के स्वामी तेजस्वी महेन्द्र के चारो ओर गुंजायमान  हों, उन्हें श्रद्धापूर्वक आवृत कर लें। हे मनुष्यो! अपने जाज्वल्यमान वज्र के प्रहार से महाघोषकारी बादलों से जल खींच कर प्यासी धरित्री को सस्यश्यामला बनानेवाले, पृथ्वीलोक और द्युलोक में सामंजस्य के समायोजक,शारीरिक और संकल्पबल से सम्पन्न महातेजस्वी इन्द्रदेव को अपनी स्तुतियाँ समर्पित करें। हे इन्द्रदेव! आप घी, दही से युक्त, श्रद्धापूर्वक तैयार सोम ग्रहण करें।यह ओजदायी और प्रसन्नतावर्धक है। हे इन्द्रदेव! आप रक्षणीय की रक्षा करें। हमसे ईर्ष्या करनेवाले, हमारे निंदकों को हमसे दूर रखें। हमें कोई किसी प्रकार की क्षति न पहुँचाए। हम बलशाली हों,उत्साही हों, तेजस्वी, यशस्वी हों। हमारे पास से वृद्धत्व दूर रहे। हम सदबुद्धि , ज्ञान और धन से सम्पन्न रहें। निराशा और आलस्य हमसे दूर रहें। हे अटल,प्रचण्ड,अविजेय इन्द्र ! हमारे शत्रु कभी हम पर हाबी न हों। हे इन्द्र! हमारे स्तोत्र - गायन आप तक पहुँचें और आपको प्रसन्नता प्रदान करें। - मदनमोहन तरुण

इन्द्र

ऋगवेद से -1 हे इन्द्र! तुम हमारी रक्षा करोगे तो हम प्रबल सेना से सम्पन्न शत्रुओं को भी पराजित कर देंगे। जो वीर युद्ध में मारे जाते हैं,इन्द्र उन्हें स्वर्ग प्रदान करते हैं। युद्ध स्वर्गप्राप्ति का निष्कपट मार्ग है। हे इन्द्र!आयुधधारी शत्रुसेनाओं की शक्ति नष्ट कर तुम उन्हें श्मशान में फेंक दो। हे इन्द्र! तुमने एक सौ पचास शत्रुसेनाओं का विध्वंस किया,यह तुम्हारे लिए बहुत साधारण कार्य है।तुम क्रूरतापूर्वक शत्रुओं का विनाश करते हो, किंतु अपने यजमानों के रक्षक हो। हे इन्द्र! हमारे शत्रु सदा असावधान रहें और हमारे मित्र सावधान रहें।हमारे प्रतिकूल चलती वायु वन से बाहर चली जाए। जो हमारे विनाश की इच्छा रखे, तुम उसका सर्वनाश कर दो। हे इन्द्र! यदि पृथ्वी अपने वर्तमान आकार से  सौ गुना भी बड़ी होती और उस पर निवास करनेवाले मनुष्य अमर होते, तब भी तुम अपने सामर्थ्य और अपनी शक्ति के लिए उतने ही प्रतिष्ठित होते। हे इन्द्र! हम विजयी हों, विद्वान, बुद्धिमान और धन से सम्पन्न हों।

औरत

औरत, महिला और श्रीमती मदनमोहन तरुण 'औरत' एक लैंगिक इकाई है।औरत ,अर्थात मनुष्य नामक प्राणी में पुरुष से भिन्न इकाई।यानी मादा। 'महिला' औरत से आगे की इकाई है। यानी अपेक्षया एक सम्मानित औरत। 'श्रीमती' का अर्थ  वही नहीं है जो पुरुष के संदर्भ में 'श्रीमान' का है।श्रीमती का अर्थ है ,किसी की बीबी या विवाहित औरत। जबकि, श्रीमान का अर्थ है कोई प्रतिष्ठित या ओहदेदार पुरुष। आज भारत की औरतों ने भी 'गृहिणी',अर्थात घर की भिस्ती और बावर्ची के छद्म ओहदे से से अलग हट कर अपनी ताकत से अपनी अलग पहचान स्थापित की है।'यत्रनार्यस्तु पूज्यंते, रमंते तत्र देवता' जैसे पुरुष की छललीला से गढ़े जुमले से अलग हट कर। आज औरत का आत्मतेज से दीप्त चेहरा हर जगह दिखाई देता है , उसके लिए 'वर्जित' क्षेत्रों में भी।राजनीति, प्रशासन, पुलिस, जमीन,आसमान और जल की रक्षा में तैनात फौज में भी। वह विख्यात वैज्ञानिक है, चिकित्सक है, विधिवेत्ता है, लेखिका है, जुझारू आंदोलनकर्ता है। पृथ्वी ही नहीं, अन्य ग्रहों पर भी अपनी धाक जमानेवाली जाँवाज औरत है। वर्तमान भारत सरकार के दृष्टिसम्पन्न और बागी प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने वसंती टेलकम पावडरदार हवाओं का रुख मोड़ कर उसे तूफान बना दिया है। निर्मला सीतारमण जी को भारतराष्ट्र का रक्षामंत्री बनाया जाना इस दिशा में महाबली का जुझारू फैसला है। इससे भारत ही नहीं, हमारे आसपास के देशों में भी एक अलग किस्म की चुनौतीभरी हुंकार पैदा होगी। लेकिन इसके अलावा औरत का एक कमजोर मोर्चा भी है जहाँ जनाना कराटे का पूरा मुक्का नहीं पहुँचा है , लेकिन लड़ाई जारी है। मुस्लिम औरतों के तलाकपीड़ित मोर्चे पर भारत के उच्चतम न्यायालय के भारी हथौड़े की आवाज ने धर्म की आड़ में औरत की जिंदगी को नारकीय बनानेवालों को उनकी हैसियत से उन्हें पूरी तरह वाकिफ करा दिया है, बावजूद इसके , परम्पराओं की जागीरदारी में पलनेवाले भूत,प्रेतों ने तलाक के खिलाफ बगावती तेवर रखनेवाली औरतों की जिंदगी को अब भी मुश्किल बना रखा है। दूसरी ओर आज भी शिक्षित से शिक्षित शादीशुदा औरत दहेज के नाम पर कदम- कदम पर अपमानित होती है, जलाई जाती है, एसिड से बदरंग बनाई जाती है, बलात्कार कर जहाँ-तहाँ फेंक दी जाती है। औरत को यहाँ भी अपने पक्ष में खड़ा होना होगा। हो सकता है उसे अभी भी पिंजड़े से अपने आसमान को आजाद कराने के लिए एक बड़ी और जुझारू जंगे आजादी लड़नी पड़ेगी, लड़नी ही पड़ेगी और हम जानते हैं कि वह लड़ेगी और जीतेगी।

Wednesday, July 26, 2017

Saturday, July 15, 2017

दाढ़ी, मूँछवाला परिवार
मदनमोहन तरुण
उनके घर में जब भी कोई बच्चा पैदा होता है, उसे देखने वालों की भीड़ लग जाती है।पूरा गाँव, शहर उसे देखने को आ जुटता है।यहाँ तक कि पूरा देश अगले दिन के समाचारपत्र की प्रतीक्षा करता रहता है जिसमें उसका फोटो छपता हो। और सच पूछिये तो भला लोग उसकी प्रतीक्षा करें क्यों नहीं, उनके यहाँ संतान पैदा होना कोई मामूली बात तो नहीं।
उनकी संतानें , चाहे लड़का हो या लड़की, दाढ़ी-मूँछ के साथ जन्म लेती है। पहले का जमाना होता तो लोग कहते शैतान और पिशाचिनी ने जन्म लिया है , लेकिन बदलते जमाने के साथ मान्यताएँ भी बदलती हैं। सो, उस परिवार को हर कोई मूँछवाला परिवार के नाम से ही जानता है।इस परिवार की संतानों की एक विशेषता या विचित्रता यह भी है कि वे जन्म लेते ही जोंक की तरह प्रदेश के शरीर से चिपक कर उसका रक्त चूसने लगती हैं और निरंतर मोटी होती जाती हैं। उनके जन्म का उद्देश्य ही यही है कि वे मोटी और मोटी, केवल मोटी होती जाएँ।मोटा होने मे उनका कोई खर्च नहीं होता, उन्हें बस हर हालत में प्रदेश के शरीर से चिपके रहना पड़ता है।
इनदिनों लोगों को एक बात से बहुत हैरानी हो रही है। उनका परिवार जितना ही मोटा होता जा रहा है , प्रदेश की शेष जनता दिन-व-दिन उतनी ही सूखती चली जारही है।डाक्टरों ने जाँच में पाया है कि प्रदेश की जनता की हड्डियों की गहराई तक इन जोंकों का प्रवेश होचुका है और बड़े-बड़े विशेषज्ञ इसके उपचार के लिए प्रभावशाली औषधियों की खोज में लगे हुए हैं।
एक और बड़ी समस्या यह भी है कि इस परिवार के हर सदस्य का शरीर इतनी तेजी से मोटा होकर चारों ओर फैलता जा रहै कि शेष लोगों के रहने के स्थान की कमी होती जा रही है। कुछ लोग तो पेड़ों पर रहने के लिए बाध्य हो रहे हैं।दूसरीओर उनका फैलता शरीर स्वाभाविक रूप से दूसरों के घरों में पसरता उनका अपना आवास बनते जा रहे हैं , लोगों के खेत-खलिहानों की भी यही हालत है। कहते हैं उनके खेतों में फसलें भी दाढ़ी -मूँछ के साथ पैदा हो रही हैं और उनका आकार जोंक जैसा है।
सच कहा है विधि के विधान को कोई नहीं जानता!