Saturday, January 5, 2013


KAUTILYA’S   ‘ARTHASHAASTRA’

MadanMohan Tarun



Friends and foes

पितरपैतामह नित्यं वश्य मद्वैध्यं महल्लघुसमुत्थिमिति मित्रसम्पत।अराजजीवी लुब्धः क्षुद्रपरिषत्को विरक्तप्रकृतिरन्यायवृत्तियुक्तो व्यसनीनिरुत्साहोदैवप्रमाणो यत्किंचनकार्यगतिरननुबन्धः क्लीबो नित्यांपकारी चेत्यमित्रसम्पत्।एवम्भूतो हि शत्रुः सुखः समुच्छेत्तुं भवति।

मित्र भी पिता- पितामहों की परम्परा से चले आनेवाले परिवारों से होना चाहिए। वे सदा बने रहनेवाले, श्रेष्ठ कुलों के हों, संदेह से परे एवं महान एवं समय पर काम आनेवाले हों। अब अमित्र के बारे में- शत्रु यदि राजकुल का न हो, लोभी, क्षुद्र लोगों के साथ रहनेवाला, लघुबुद्दि, जिससे अमात्यादि अप्रसन्न हों , निरुत्साही, बिना विचारे काम करनेवाला, भाग्यवादी, जो आश्रय देने में असमर्थ हो, सहायता, धैर्य से रहित हो, अपने - पराये सभी का अपकार करनेवाला हो- ऐसे शत्रु को सरलता से नष्ट किया जा सकता है।

Those friendly relations should continue which has been closer to ancestors always. They are likely to continue longer, they should belong to royal families, should be beyond doubts, great and  helpful when time demands. It is easy for enemies  to destroy people who do not belong to royal lineage, greedy, live in company of mean people, numb minded, disliked by higher officials, lack enthusiasm, work without thinking, fatalist, do not help or gives shelter to anybody, lack patient, harm everybody .

No comments:

Post a Comment