Saturday, October 6, 2012

Aaj Batiyaayein : Let us talk closely today


आज बतिआएँ
मदनमोहन तरुण

जरा और पास आओ
आज बतिआएँ
कभी धीरे धीरे
कभी फुसफुसाएँ

हो सके तो हँस लो
हो सके तो रो लो
धारा पर छोड॰ दो आज खुद को
जिधर ले जाए धार
उधर बह लो।

इन दिनों न जाने कभी - कभी
मुझे क्या होता है
खुद को छूता हूँ तो गायब पाता हूँ
भीड॰ में भी खुद को सन्नाटों में पाता हूँ।

पत्नी शिकायत करती हैं -
आप अपनी आँखें तो कभी खोलते नहीं
मुझे पहचानते हैं?
कभी देखा है मुझे इन दिनों में,
मुझे जानते है?'
सुनकर लगता है अपराधी हूँ,
परन्तु यह सच है


मैं ज्यादा बन्द आँखों की दुनिया में रहता हूँ
छाया और कुहासों की दुनिया में

मैं बाहर कभी ,कभी ही आता हूँ
आँखें खुली रहती हैं मगर मैं वहाँ नहीं होता
बातें होती रहती हैं मगर मैं कुछ और सुनता रहता हूँ

कभी बीज से फूटता हूँ और धीरे धीरे विशाल वृक्ष बन जाता हूँ
कभी बन जाता हूँ पर्वत
कभी झरना बनकर झरने लगता हूँ ऊँचाइयों से
कभी बन जाता हूँ ज्वारों भरा सागर
कभी विशाल पक्षी बन भरता हूँ उडा॰न
और
पहुँच जाता हूँ आसमान के भी उस पार
जो घने कुहासे की दुनिया है
जहाँ बसते हैं छाया से लोग
मैं उन्हीं में एकाकार हो जाता हूँ


लगता है जन्मों - जन्मों से मैं यहीं था
यही तो है मेरा घर


जरा और पास आओ
आज बतिआएँ
कभी धीरेधीरे
कभी फुसफुसाएँ

मैं उन जगहों पर जाता हूँ
जिसे कभी देखा नहीं,
जो शायद है भी नहीं
मै उन लोगों से मिलता हूँ
जिन्हें कभी देखा नहीं
जो शायद हैं भी नहीं
पर सच कहता हूँ
वही लगते हैं अपने
मैं इतनी ढेर सारी
सच्चाइयाँ लेकर क्या करूँगा
मुझे तो अच्छे लगते हैं सपने।


जरा और पास आओ
आज बतिआएँ
कभी धीरेधीरे
कभी फुसफुसाएँ

निपट अकेलेपन के सन्नाटों में लौट चलें
जहाँ खुद की भी सत्ता नहीं होती
जहाँ कुछ भी नहीं होता
जरा और पास आओ
आज बतिआएँ
कभी धीरे धीरे
कभी फुसफुसाएँ

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