याद आता है गुजरा जमाना
मदनमोहन तरुण
पटना की यादें
4 अप्रील 2013 से 16 अप्रील तक की मेरी पटना यात्रा मेरे जीवन की मिठासभरी स्मृतियों में एक है।
पटना स्टेशन पर पहुँचते - पहुँचते मेरे ट्रेन की गति जैसे ही मन्द होने लगी , मन उत्साह से भर उठा। ट्रेन से अपनी पत्नी माधुरी और बेटी सीमा के साथ जैसे ही बाहर उतरा वैसे ही मेरे छोटे भाई एडवोकेट अजय कुमार मिश्र ने मुस्कुराते हुए हमलोगों का स्वागत किया। मैं उन्हें देखते ही अपना आपा खो बैठा और और उनसे लिपट गया। हम दोनों भाई देर तक इसी अवस्था में रहे। ट्रेन से उतरते लोगों ने मुस्कुराते हुए हमदोनों की इस विभोरावस्था को देखा। हमारी आँखें भावुकता से गीली हो गयी थीं। छूटते ही उन्होंने मेरी पत्नी के चरणस्पर्श किए और बेटी मेरी ने झुक कर उनके चरण छुए।
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पटना स्टेशन से बाहर निकलते ही सामने हनुमान मंदिर के ऊपर बडे॰- बडे॰ आक्षरों में अंकित रामचरित मानस की प्रसिद्ध पंक्ति 'प्विसि नगर कीजै सब काजा' ने अपने शुभाशीष की वर्षा कर मन -प्राणों को पावन कर दिया। हमारे शीष नत हो गये और हथेलियाँ प्णति मुद्रा में आ गयीं। प्रविसि । बाह अजय बाबू की कार हमलोगों की प्रतीक्षा कर रही थी। थोडी॰ ही देर मे कार सड॰क पर दौड॰ लगा रही थी जिसे चला रहे थे उनके ड्राइवर चुनमुन जी। अम जिन सड॰कों से गुजर रहे थे उस पटना को पहचानना सरल नहीं था। मैं यहाँ वर्षों बाद आया था। चौडी॰ - चौडी॰ सड॰कों के दोनों ओर पंक्तिबद्ध वृक्ष लगे थे।दोनों ओर विशाल - विशाल मकानों की शृंखला इस शहर की सम्पन्नता को दरसा रही थी। हम कई लम्बे फ्लाई ओवर से गुजरे। यह तो एकदम नया पटना था , बिहार के सुप्रसिद्ध मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का पटना जिनके कुशल नेतृत्व मे नये बिहार का निर्माण हुआ था। सढ॰कों पर बहुत भीड॰ थी।
घर पहुँचने पर अजय बाबू की समर्पित पत्नी कुमकुम ने मुस्कुराती आत्मीयता से हमलोगों का स्वागत किया। मेरी पत्नी और वे दोनों गले मिले । मेरी बेटी ने झुक कर उनके चरणस्पर्श किए।
थोडी॰ ही देर बाद हमारे सामने रसगुल्ले से भरा कटोरा आ गया जिसका हमने भरपूर आनन्द उठाया। पटना के स्पंजी रसगुल्ले की बात ही और है।
झब मैं घर के अन्दर पहुँचा तो सबसे पहले सामने की दीवार पर बाबूजी और माँ की कलात्मक तस्वीरें नजर आईं। अजय बाबू इनकी प्रतिदिन पूजा करते हैं। हमलोगों ने झुक कर दोनों को प्रणाम किया और अतीत की स्मृतियों में खो गये। मन भावुक हो गया।
अजय बाबू का कार्यालय कक्ष कानून और साहित्य की उत्तम पुस्तकों से भरा था। मेरे रहने की व्यवस्था वहीं की गयी थी। मेरी बेटी के लिए अलग कमरे की व्यवस्था थी। अजय बाबू ने हमें विश्राम के लिए कहा किन्तु इस मोहक वातावरण के सम्मोहक मिलन की घडि॰यों ने हमारी थकान का पूरी तरह हरण कर लिया था। हमारी बातों का सिलसिला शुरू हुआ तब न जाने पुरानी स्मृतियों की किन - किन गलियों से हम गुजरते चले गये और अतीत नये - नये रूप लेकर हमारे सामने उबरता चला गया।
वहाँ पहुँचने के दूसरे दिन से हमलोगों के भ्रमण का सिलसिला शुरू हुआ।
पटना के साथ हमारी अनेक नहीं , अनन्त स्मृतियाँ जुडी॰ हैं। मैं बचपन में बाबूजी के साथ पटना आया करता था और उनदिनों वहाँ के सबसे अच्छे होटल सोडाफाउन्टेन में अपनी पसन्द का नाशता करता तथा सिनेमा देखने के बाद भोजन होता। जब मैं थोडा॰ बडा॰ हुआ तो माँ को पटना ले जाने लगा। तब पटना के पर्ल सिनेमा में नागिन फिल्म चल रही थी। माँ को इस फिल्म में स्वर्ग का दृश्य इतना अच्छा लगा कि वह १७ बार फल्म देखने के लिए पटना आई। नागिन फिल्म की बीन का उनदिनों लोगों पर जादूई प्रभाव था। प्रदीप कुमार और वैजयन्ती माला द्वारा अभिनीत उस फिल्म की दीवानगी मुझ पर भी कोई कम नहीं थी। मैं जब भी अपने मुँह से बीन की आवाज निकालता तो माँ डाँट देती थी कि पैर खाट पर रखो , कहीं आवाज सुनकर साँप न आ जाए।
दुर्गा पूजा के दिनों में पटना के गोविन्दमित्रा रोड पर उनदिनों सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित होते थै। इस अवसर पर यहाँ देश के महान गायक और वादक आया करते थे। यहीं मैंने रात - रात भर जाग कर विसमिल्ला खान जी की शहनाई , कंठे महाराज और गोदई महाराज का तबला सुना है।
अगले दिन हमलोग गाँधी मैदान पहुँचे। इस मैदान में मैंने देश के बडे॰- बडे॰ नेताओं के भाषण सुने हैं जिनमें पंडित जवाहरलाल नेहरू के कई रोमांचक भाषणों की याद मुझे अब भी । उनका एक भाषण मैं भूला नहीं हूँ। उनदिनों बी एन कालेज के एक विद्यार्थी की मृत्यु पुलिस की गोली लगने के कारण हो गयी थी, जिस के विरुद्ध पटना में छात्रों का बहुत बडा॰ आन्दोलन हुआ और समयक्रम में यह इतना उग्र हो गया कि स्वयं पंडित जी को यहाँ आनापडा॰।
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उसदिन गाँधी मैदान में तीन लाख से भी अधिक लोग जमा थे। पंडित जी ने भाढण देना शुरू किया ही था कि घनघोर वर्षा शुरू हो गयी लेकिन मैदान से एक भी आदमी टस से मस नहीं हुआ। लोग भींग रहे थै और भाषण सुन रहे थे। इसी बीछ पंडित जी के एक अंग रक्षक ने उन्हें पानी से बचाने के लिए उनपर छाता तान दिया। पंडित जी ने उसके हाथ से छाता छीन कर फेंक दिया और भीगते हुए भाषण देते रहे। गजब का वह नजारा था वक्ता और श्रोता दोनों भींग रहे थै और भाषण जारी था । मैं पंडित जी के बारे में और भी कई जगह लिख चुका हूँ , आपने पढा॰ होगा। आज मैंने जिस गाँधी मैदान को देखा वह पहले से कहीं अधिक मनोरम और सजा- धजा है। यहाँ लगी गाँधी जी की मूर्ति उनकी सबसे ऊँची मूर्ति मानी गयी है जिसके पिण्ड के चारों ओर स्वाधीनता संग्राम के समय के उन मुख्य आन्दोलनों को उकेरा गया है जो गाँधी जी के असाधारण नेतृत्व में सम्पन्न हुआ था।
गाँधी मैदान के बाद हमलोग पटना म्युजियम देखने गये और वहाँ के अनेक दुर्लभ संकलन देखे।
हमलोगों ने बाद मे पटना का पर्यावरण पार्क देखा । यह एक विशाल और मोहक पार्क है। स्टील की कटोरियों , ग्लास आदि से बना यहाँ का कैक्टस ट्री उसके प्रमुख आकर्षणों में है साथ ही इसकी झील के फव्वारे मनमोहक हैं।
पर्यावरण पार्क से बाहर निकलते- निकलते संध्या की लालिमा सँवराती हुई गहरी होने लगी थी।सृष्टि अब अपनी रहस्यमयता से एकाकार होने लगी थी और इंसानों ने अपनी यात्रा जारी रखने के लिए अपनी रोशनी जाग्रत कर ली थी।
पार्क के बाहर कतार में कोमचों पर चाट और पानीपुरी की दुकानें सजी थी। यह एक दर्शनीय नजारा था।पानीपुरी से सजी दुकानों को देख कर मेरा मन मचल उठा।अजय बाबू मेरी यह कमजोरी अच्छी तरह जानते थे। वे एक परिचित खोमचेवाले के सामने खडे॰ होगये। उन्होने दुकानदार से मेरा परिचय दिया और कहा कि ये बैंगलोर से आए हैं , मैं तुम्हारी बहुत तारीफ कर इन्हें यहाँ ले आया हूँ , मेरी इज्जत रख लेना। सुनकर खोमचेवाले की आँखें चमक उठीं। पटना के गोलगप्पे आकार में अन्य जगहों के गोलगप्पों से आकार में बडे॰ थै । लगता था वे झीने कागज से बने थे। उनका सारा शरीर पारदर्शी लग रहा था। वे अपने आप में अलग - अलग ब्रह्माण्ड की तरह लग रहे थे ।
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अबतक गोलगप्पेवाला अपनी तैयारी कर चुका था। पानी के घडे॰ मे वह कलछी घुमाकर उसके स्वाद को एकसार कर चुका था। अब उसने पानीपुरी में छेद बनाया , उसे घडे॰ में डाला और जब पानीपुरी घडे॰ से बाहर या तो वह रस से परिपूर्ण था। पहला गोलगप्पा मेरे पात्र मे गिरा। मेरी उँगलियाँ तैयार थीं। मैने उसे महीनी से उठाया , मुँह के पास ले गया और मेरा मुँह खुलता- खुलता उसके आकार को ग्रहण करने लायक हो गया तब मैंने सलीके से मुँह में डाला। मुँह मे पहुँचते ही वहाँ के कलाकारों ने अपना काम शुरू कर दिया।ऊपर के तलवे ने उसपर हल्का- हल्का दबाव डाला और फिर जैसे रस की गंगा बहचली। जिह्वा को सींचती - सींचती मन- प्राणों में धीरे - धीरे प्रवाहित होने लगी। उसके बाद एक- के बाद दूसरा, दूसरे के बाद तीसरे ने अन्दर प्रवेश करना शुरू कर दिया। हर गोलगप्पा जैसे किसी महाकाव्य का नूतन और मौलिक सर्ग था।
हमने पूरी तृप्ति भर गोलगप्पे खाए। परिवार के अन्य सदस्यों ने चाट का मजा लिया। इसका समापन हमलोगों ने एक खास किस्म के तुरत बने आइसक्रीम से किया जिसमें मिठास और खटास का असाधारण संतुलन था।
आज का दिन हमारी श्रीमती का जन्मदिन भी था। कुकुम ने चुपचाप यह कार्यक्रम बना लिया था। वहाँ से चलकर हम अजय बाबू के घर के पास ही के प्रसिद्ध हो ट ल रोटी में पहुँचे। वहाँ बहुत भीड॰ थी , कई परिवार प्रतीक्षारत थे। हमारी सीट पहले से ही बुक थी इसलिए कोई परीशानी नहीं हुई। मेरा पेट पानीपुरी से इतना भर चुका था कि मेरे लिए फिर एक दाना भी ज्यादा खाना सम्भव नहीं था। मैंने भोजन नहीं किया। परिवार के अन्य सदस्यों ने उसका खूब आनन्द उठाया।
पटना में इस बार अजय बाबू के साथ मेरा निवास मेरे जीवन की सुखदतम स्मृतियों में है जिसके मिठासभरे सिंचन ने मेरे मन- प्राणों को पूरी तरह आप्यायित कर दिया।
यह सही अर्थों में लम्बे अंतराल के बाद दो भाइयों का मधुर मिलन था जिसे उनकी पत्नी कुमकुम ने अपने निर्मल और खुले व्यवहार से और भी सम्मोहक बना दिया। भोजन तो हम प्रतिदिन करते हैं किन्तु जब लगे कि किसी ने हमारी रुचि का पूरी तरह खयाल रखते हुए यह सब किया है तो वह दैनिक कार्यक्रम नहीं रह जाता उस भोजन से पेट को नहीं आत्मा को तृप्ति मिलती है। मेरे पहुँचते ही वहाँ हमारे बारह दिनों का विविधतापूर्ण मेनू तैयार था। उस में प्रतिदिन नवीनता तो थी ही मेरे स्वास्थ का पूरा खयाल रखा गया था। मैं उनदिनों बहुत बीमार था। पिछले तीन महीनों से मैं किसी – न - किसी स्वास्थगत उलझनों से घिरा था। अजय बाबू को इसका पूरा एहसास था । वे सवेरे प्रतिदिन आते - जाते बारह किलोमीटर का पैदल सफर करते हैं। उनके साथ टहलकर इस अवसर का लाभ उठाने की प्रबल इच्छा मेरे मन में भी थी किन्तु मेरे स्वास्थ की स्थितियों ने मेरी इस प्रबल इच्छा को पूरा होने नहीं दिया। किन्तु हम इसकी आपूर्ति दूसरे रूप में करते रहे। वे कोर्ट से प्रतिदिन करीब तीन बजे लौट आते और उसके बाद हमारी बातों का , यादों का सफर शुरू हो जाता और करीब रात के एक बजे तक चलता रहता। इस बीच परिवार के किसी सदस्य को नींद नहीं आती , मेरी पत्नी , बेटी ,कुकुम सभी जगे रहते। एक बजे रात में भी हम मन मसोस कर अपने - अपने कमरे में जाते। मेरे बिस्तरे की चादर हर रोज बदली जाती।
पटना की इस यादगार यात्रा की पूर्णाहुति तबतक नहीं हो सकती जबतक हनुमान बाबू बाबू की चर्चा न कर ली जाए। रामायण बाबाबू सरकारी सेवा से निवृत्त एक उच्च पदस्थ अधिकारी हैं। ।उनकी अवस्था ७५ वर्षों से ऊपर है किन्तु उनका स्वास्थ अच्छा हे।वे प्रतिदिन धुली और स्तरीकृत कमीज और पैंट पहनकर निकलते हैं,उनके जूते पालिश से चमकते होते हैं। उनमे एक ताजगी और जागृति है।वे अजय बाबू के अंतरंग हें। उन्होंने मेरी पुस्तक 'तब चारुवाक बोले' पढ॰ रखी थी। वे मुझसे मिलना चाहते थे और शायद यह सयह समझना चाहते थे कि इस लेखन और इस लेखक के वास्तविक जीवन में भी तालमेल है या नहीं। कोई भी लेखन लेखक के अंतरंग और उसके व्यक्तित्व का दर्पण होता है। दोनों एक- दूसरे से अलग हो भी नहीं सकते। शाम को हनुमान बाबू से पहली मुलाकात हुई और उसके बाद मिलने का यह दैनिक सिलसिलस बन गया और उनसे विभिन्न विषयों पर बातें हुई। उन्हें इस बात का पूरा भरोसा हो गया कि इस लेखक और उसके लेखन में कोई दूरी नहीं है और दोनों एक - दूसरे के प्रतिबिम्ब हैं।
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पटना से लौटने के दिन जितने करीब आते गये मन भावुक होता चला गया। अजय बाबू के साथ बैठने और बातों का सिलसिला बढ॰ता चला गया। इसी बीच बिसुआ का त्योहार आगया जिसदिन बिहार के लोग सत्तू खाते हैं। सत्तू एक महान स्वादिष्ट भोजन है। ठहल कर लौटते हुऐ अजय बाबू ऊधर से कच्चा आम लेते आए। उसका कुच्चा बना और सत्तू की विशेष तैयारी हुई। दोपहर में हमने साथ मिलकर सत्तू खाने का जो मजा लिया वह अविस्मरणीय था।
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बिहार के भोजनों मे लिट्टी का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। अगर आपने लिट्टी नहीं खाई तो समझिए कि आप जीवन के एक महान खाद्य के स्वाद से वंचित हैं। बिसुआ के अगले दिन मेरी इच्छा से लिट्टी बनी। मेरी पत्नी भी लिट्टी बनाती रही हैं जो मुझे बहुत पसन्द है ,परन्तु कुमकुम ने यहाँ जो करारी लिट्टियाँ बनाईं उसका सुखद अनुभव अद्भुत था। गोल और करारी लिट्टियाँ तैयार होकर घी में मानों डुबकी लगा कर तरोताजा समने आईं। देख कर चित्त गदगद हो गया। कड॰क घी में शराबोर लिट्टी को हथेली के दबाव से तोड॰कर मुँह में डाला तो आँखें आनन्द से बन्द होगयीं। दाँत उसपर दवाव डालकर उसे एकरस करते रहे और फिर जब स्वादिष्ट लिट्टी जीभ की तृप्त स्वीकृति पाकर जब गले से नीचे उतरने लगीं तो लगा धरती पर नहीं इन्द्रलोक में भोजन हो रहा है।
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यहाँ का हर दिन एक नया समारोह था । यहाँ से लौटने की कसी की इच्छा नहीं थी परन्तु हम कर्तव्यों की अलग - अलग डोर से बँधे हैं। एक ऐसा क्षण जरूर आता हे जब हमें एक- दूसरे से बिछुड॰ना होता है। आखिर। हमलोगों के न चाहते हुए भी वह घडी॰ आगयी। स्टेशन में हम एक-दूसरे से गले मिलकर ट्रेन पर सवार हुए और चलती ट्रेन से जबतक हम एक- दूसरे को दिखाई देते रहे , हम आतुरता से हाथ हिलाते रहे।