Friday, November 30, 2012





भारत के पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. इन्द्रकुमार गुजराल से  एक साक्षात्कार

                     मदनमोहन तरुण
भारत के पूर्व प्रधानमंत्री ड़ॉ. इन्द,कुमार गुजराल ने 21 सितम्बर 19 99 को इस अकादमी के 66 वें आधारित पाठ्यक,म का उद्घाटन किया तथा सम्पूर्णानन्द सभागार में उन्होंने प्रशिक्षणार्थी अधिकारियों को प्रबोधित किया।अपने इस प्रबोधन में समकालीन भारतीय एंव विश्व के राजनीतिक परिदृश्य पर विस्तार से अपने विचार व्यक्त करते हुए उन्होंने प्रशासन में मानवीय तत्वों के अधिकतम समावेश पर बल दिया।प्रबोधन के अंत में डॉ. गुजराल ने प्रशिक्षणार्थियों की बहुबिध जिज्ञासाओं का सारगर्भित निवारण किया।
डॉ. इन्द्रकुमार गुजराल भारतीय राजनीति की उस पीढ़ी के लोगों में हैं जिन्होंने अपनी यह यात्रा महात्मागांधी के नेतृत्व में आयोजित स्वाधीनता संग्राम से की थी।1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन में सक्रिय रूप से भाग लेते हुए डॉ. गुजराल ने जेल यात्रा की और तब से अब तक वे निरन्तर सक्रिय हैं।आज भी उनमें वही ऊर्जा , जगृति और उत्साह है।
                     डॉ. गुजराल का जन्म 4दिसम्बर 1919 को अविभाजित पंजाब के झेलम में हुआ था।वे बी.कामएम..  पी. एच. डी. तथा डी. लिट. जैसी उच्चतम शैक्षणिक उपाधियों से सम्पन्न राजनेता हैं। डॉ. गुजराल ने भारत सरकार के विभिन्न महत्वपूर्ण पदों पर रहते हुए देश की सेवा की है।
                       1959 से 1964 तक वे नई दिल्ली नगरपालिका परिषद् के उपाध्यक्ष रहे। 1964 से 1976 1989 से 1991 तथा 1992 और तत्पश्चात् भी वे संसद सदस्य रहे। 1968 से 1976 तक उन्होंने सूचना एंव प्रसारण,संचार,निर्माण और आवास तथा योजना मंत्रालयों का कार्य संभाला। 1976 से 1980 तक वे सोवियत संघ में भारत के राजदूत रहे। 1989- 1990 तथा पुनः 1996 तक वे भारत विदेश मंत्री रहे।  डॉ. गुजराल का यह कार्यकाल भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण माना जाता है।
               21 अप्रैल 1996 को उन्होंने भारत के बारहवें प्रधानमंत्री का पद सुशोभित किया।राजनीति के साथ ही साहित्य में भी रुचि रखने वाले डॉ. गुजराल का सौम्य स्वभाव उनके मिलने वालों को आत्मीयता से भर देता है।आकर्षक व्यक्तित्व से सम्पन्न डॉ. गुजराल सही अर्थो में अस्सी वर्ष के जाग्रत युवा र्हैं व्यवहार से,विचार से और व्यक्तित्व, सबसे , वे समस्याओं पर खुली दृष्टि से विचार करते हैं।अतीत का गहन अध्ययन और समसामयिक स्थितियों का निकटस्थ विश्लेषण उनकी भविष्य दृष्टि को और भी हस्तामलक कर देता है।उनकी अभिव्यक्ति में एक राजनेता का तामझाम नहीं है, ननू, नच नहीं है, वे सहज, स्पष्ट और दृष्टि सम्पन्न हैं।
डा. गुजराल के साथ मेरा यह साक्षात्कार 21सितम्बर 1999 का है जब मैं लालबहादुर शास्त्री नेशनल अकादमी आफ एडमिनिस्ट्रेशन ,मसूरी में भारतीय एवं विदेशी भाषा - विभाग का प्रोफेसर एवम अध्यक्ष था।
उनदिनों मै ' अकादमी संवाद' का सम्पादक भी था। यह वार्ता पहली बार अकादमी के जून - जुलाई 1999 अंक में प्रकाशित हुई थी।                 
यह साक्षात्कार आज भी कई दृष्टियों से बहुत महत्वपूर्ण है।इसमें समकालीन भारतीय राजनीति एंव विश्व परिदृश्य से सम्बद्ध कई महत्वपूर्ण प्रश्नों पर डॉ. गुजराल के मौलिक विचार हैं जो इतिहास ,राजनीति एंव वर्तमान जीवन की बहुबिध समस्याओं पर उनकी गहरी दृष्टि और सोच को तो प्रतिबिम्बित करते ही है,इस दिशा में सोचने को भी बाध्य करते हैं। वह वार्ता यहॉं यथावत प्रस्तुत है -

             मदनमोहन तरुण एक नागरिक के रूप में यह बात हम लोगों को बार्रबार बेचैन करती है कि भारतीय स्वाधीनता संग्राम में देश की उच्चतम एंव प्रखरतम वरिष्ठ प्रतिभाओं ने भाग लिया था।उससे एक नए राष्ट्र को बड़ी-बड़ी आशाएं थीं, परन्तु स्वाधीनोत्तर भारत जैसे-जैसे समय की दृष्टि से प्रगति करता चला गया वैसे-वैसे यहां की राजनीति में उच्चतम प्रतिभाओं की भागीदारी कम से कमतर होती गयी और ऐसे लोग आते चले गये जो न तो राजनीतिज्ञ थे,न बुद्धिजीवी,न समाजसेवी, न अपने क्षेत्र के पूर्णतः प्रतिष्ठित लोग।दूसरी बात यह है कि स्वधीनोत्तर भारत की राजनीति में जीवन मूल्यों के प्रति संवेदनशील लोगों की संख्या भी कम होती चली गयी है।ऐसे लोग आते चले गयेहैं जो बहुधा आत्मकेन्द्रित हैं,राष्ट्रीय जीवन की जड़ो तक उनकी पहुंच कम तो क्या,अपने निजी स्वार्थो की सम्पूर्ति के बाहर का संसार उन्हें छूछा दिखाई पड़ता है।आपने आज हमारे अधिकारी प्रशिक्षणार्थियों को संबोधित करते हुए कहा कि प्रशासन में मानवीयता के तत्वों पर ध्यान रखना आवश्यक है न कि उसकी औपचारिकताओं पर।आपने भारतीय राजनीति के विकास को बहुत निकट से देखा है।क्या कारण है कि स्वधीनोत्तर भारतीय राजनीति में राष्ट्रीय हितों के प्रति समर्पित लोगों की संख्या कम होती चली गयी है ?

ड़ॉ.इन्द्रकुमार गुजराल यह जो आपने चिन्ता व्यक्त की है,वह ठीक है।लेकिन समाज बदल रहा है।जब मेरी पीढ़ी के लोग राजनीति में आये थे तो चुनौती अलग किस्म की थी।वह चुनौती संघर्ष की थी।जब हमारी पीढ़ी के लोग आये थे तो उनमें से अधिकतम लोग पढ़ार्ई लिखाई में बहुत अच्छे थे।जब वे फैसला करते थे तो वे अन्य दरवाजे बन्द कर लेते थे।हिन्दुस्तान की आजादी उनकी पहली चिन्ता थी।उनकी चिन्ता यह नहीं थी कि वे डॉक्टर बनेंगे या वकील बनेंगे।उनका एक ही लक्ष्य था कि हिन्दुस्तान को आजाद कराना है।उस समय हमारी पीढ़ी दो हिस्सों में बंट गयी थी।आजादी के पहले की चुनौती और आजादी के बाद की चुनौती।लेकिन जो पीढ़ी हमारे बाद में आयी उनके सामने बहुत से विकल्प थे।यानी कि नयी प्रोफेशन खोजें, या सरकार में जाएं जहां कई प्रकार की पौसिविलीटी थीं।पढ़ा लिखा तबका दूसरी ओर गया।इसमें कोई गलती नहीं।आज हिन्दुस्तान ने जो तरक्की की है उसमें उनका बहुत बड़ा योगदान है। तकनीकी के क्षेत्र में भारत ने इसीलिए इतनी तरक्की की।राजनीति हमारे यहॉ दो कारणों से पढ़े लिखे लोगों को अपनी ओर खींच नहीं पा रही है।यह एक अजीब विरोधाभास है।हम यहॉं प्रजातंत्रिक पध्दति चला रहे हैं,परन्तु हमारी जो राजनीतिक पार्टियॉं हैं, वे पूरी तरह प्रजातांत्रिक नहीं हैं।इसलिए पढा. - लिखा तबका राजनीति में आना भी चाहे तो कैसे आए।मैं किसी राजनीतिक दल की निंदा करना नहीं चाहता।किन्तु , आप गौर से देखें तो इस देश की राजनीतिक पार्टियॉं किसी किसी ग्रुप या खानदान के चंगुल में है।और जबतक पार्टियॉ राजनीतिक रूप से प्रजातांत्रिक नहीं होतीं तबतक पढ़ा लिखा युवक या या पढ़ी लिखी युवती राजनीति में आना चाहे भी तो कैसे आए ।रास्ता क्या है , उसके सामने। हमारी राजनीतिक पध्दति यह सुरक्षित करती है कि इसके अन्दर आने के दरवाजे सबके लिए खुले न हों।जबतक आप किसी राजनीतिक दल या राजनेता के साथ एक अजीब किस्म का वास्ता कायम नहीं करते , खुशामद का ,या आज की जुबान में चमचागिरी का , तबताक उसमें प्रवेश कर पाना हर किसी के लिए सम्भव नहीं है।उससे पढ़े लिखे  आदमी को के स्वाभिमान को चोट पहुँचती है। अगर राजनीतिक पार्टियों का चरित्र प्रजातांत्रिक हो जाए तो अच्छे लोग राजनीति में आ सकते हैं।मैं समझता हूँ इस दृष्टि से अगली सदी हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण हो सकती है।

मदनमोहन तरुण इसी से जुड़ा एक और प्रश्न मुझे बहुत बेचैन करता है।आज राजनेताओं के प्रति जनता का दृष्टिकोण जितना नकारात्मक  है, उतना ही प्रशासकों के प्रति भी।जनता दोनों ही को अपना नहीं समझ पाती।इन बावन वर्षो में हम लोगों ने जोप्रगति की है ,उसका यह बहुत ही दुखद प्रसंग है।
 डॉ. इन्द्रकुमार गुजराल मैंने अभी फाउण्देशन कोर्स के उद्घाटन के अवसर पर जो बातें कही हैं उन्हें दुहराना चाहता हूं।बुनियादी बात यह है कि हमारे सिस्टम में जो उपनिवेशवाद के तत्व थे, हमने उसमें तब्दीलियां नहीं की हैं।वह जो हाकिम और मखदूम का रिस्ता था,वह अब भी कायम है।कोई प्रजातांत्रिक अवधारणा इसमे नहीं है।इसीलिए जनता से दूरियां बनी रहती है।यह रिस्ता तभी ठीक हो सकता है अगर प्रशासन का प्रजातांत्रिकीकरण हो।जब तक लोग एडमिनिस्ट्रेशन खुद नहीं चलाते , चाहे पंचायत के स्तर पर हो या लोकल स्तर पर , तब तक यह दूर नहीं हो सकती ।इसके लिए बहुत तब्दील्यत की जरूरत है।कई बार एडमिनिस्ट्रेशन जनता से बहुत दूर चला गया है।जब तक इसमें परिवर्तन नहीं होगा तब तक यह जो खलीज हैं, यह आड़ है, वह बनी रहेगी ।इसके लिए हम कानून बना लेते हैं लेकिन हमारी मुश्किल यह है कि जिसे करने की जरूरत है उसमें हम बहुत असमंजस (hesitation) दिखाते हैं।यह हेजिटेशन इतनी दूर चली जाती है कि जब हम कानून बना भी लेते हैं तब भी कितनी मुश्किलें सामने आती हैं।पंचायत राज कानून को ही देख लीजिए।उसमें Devolution of power in authority  (सत्ता में अधिकार का हस्तांतरण) नहीं के बराबर है।लोग अलग अलग बैठे हैं।उनके बीच हाकिम मखदूम का रिस्ता बना रहता है।यह एलीनेशन सबसे बड़ी चुनौती हैं।अभी मैंने अपने संबोधन में कहा था।आखिर ऐसा क्यों होता जा रहा है।आज तक शायद एक दो बार इसके विपरीत किसी पार्टी को पचास प्रतिशत वोट मिल गये हों,लेकिन सामान्यतः ऐसा नहीं होता।इस एलीनेशन को समझने और उसके विश्लेषण की आवश्यकता है।ज्यादा एलीनेशन उस तबके में है जो गरीब तबका है जो अपनी बात कहने के लिए प्रशासन के पास पहुंच नहीं पाता। उसके बीच और एडमिनिस्ट्रेशन के बीच एक नयी दीवार खड़ी हो जाती र्है -रिश्वत की दीवार।उस दीवार को फलांग कर आना उसके लिए बहुत मुश्किल हैं।अगर आज हम नई सदी की बात कर रहे हैं तो हमें इन बुनियादी बातों पर गौर करना होगा।
               इस प्रसंग को श्रीमती शीला गुजराल ने आगे बढ़ाते हुए कहा - इस संबंध में मैं भी कुछ कहना चाहूंगी ।मैं समझती हूं कि प्रशासन में कोई अधिकारी निडरता से काम नहीं करता।क्योंकि उसका उद्देश्य यह नहीं होता कि जनता की सेवा करनी है।वे अपने मिनिस्टर को खुश रखना चाहते हैं।वे तो यह सोचते हैं कि वे ऐसे काम करें कि उनके प्रोमोशन में बाधा न हो, उनका डिपार्टमेंट न बदला जाए।कई दफा यंग ऑफिसर आते हैं।उनकी बहुत इच्छा होती है कि वे सही दिशा में कदम उठाएं।मगर जब वे नई दिशा में कदम उठाते हैं तो उनकी तब्दीली हो जाती है।अधिकारियों को अपनी स्किन बचाने के लिए बहुत कुछ करना पडता है।लेकिन मुझे पूरा विश्वास है कि नई पीढ़ी के मन में यह बहुत बड़ी तमन्ना है कि वे लोगों के पास जाएँ।उनकी मदद करें।उसके लिए गाँव - र्गॉंव तक पहॅुंचना होगा।आज सारा सिस्टम इतना खराब है कि यंग आफिसर्स चाह कर भी कुछ कर नहीं पाते।

तुमन सिंह गांव के बारे में,योजनाओं के बारे में हम बहुत कुछ पढ़ते हैं तो वे आकर्षक मालूम पड़ती हैं और लगता है कि इन योजनाओं के कार्यान्वयन में गांवों की कायापलट हो ही जाएगी परन्तु व्यवहार में देखते हैं कि शहर और गांव के नवयुवकों के बीच बहुत बड़ी दरार बनती जा रही है,और बढ़ती ही जा रही है।शहर जिस गति से आगे बढ़ रहे हैं, गांव उस गति से आगे नहीं बढ़ रहे है।गांव का जो नवयुवक है वह पीछे ही चला जा रहा हैं,आगे नहीं आ पाता।सरकार कार्यक्रम तो बनाती है लेकिन उनके कार्यान्वयन के लिए कोई ऐसी एजेन्सी सामने नहीं आ रही है ,ताकि वे कार्यान्वित हो सकें।इस बारे में आपके क्या विचार हैं।
           डॉ. इन्द्रकुमार गुजराल देखिए ये जो 62 और 63 वें संशोधन हैं , संविधान के, उसकी स्पिरिट बहुत मजबूत है परन्तु उसका कार्यान्वयन भाग बहुत कमजोर है। एडमिनिस्ट्रेशन अगर गाँव में चली जाएगी,तो मुख्य बात यह नहीं है कि उन्हें गवर्न कैसे किया जाए , मुख्य बात यह है कि प्रशासन में स्वयं उनकी भागीदारी कैसे हो।हमने आज तक जो सिस्टम बनाया है ,जिनको हम चुनते है,उनमें डिबेट करने की काबलियत है , प्रशासन करने की काबलियत नहीं है , वे हमें शक की निगाह से देखते हैं।अगर कभी पावर चली गयी तो क्या करेंगे ? लेकिन सामान्य अनुभव यह है बहुत नहीं जैसे बंगाल में हुआ है , केरल में हुआ है।पंचायत लोकल के ऊपर लोकल लेवल का प्रशासन है।इसके परिणाम अच्छे हुए।क्योकि एकाउन्टेबिलिटी लोकल होती है।एक दफा मैंने बंगाल के एक इलाके में देखा।पंचायत के आगे एक बोर्ड लगा हुआ था कि हमने कुऑ खुदवाने में इतना खर्च किया ,फलॉं मद पर इतना खर्च किया।अब जो उसे पढ़ता है , वह प्रश्न करता है कि आपने कुऑं खुदवाने पर इतना खर्च क्यों किया , फलॉं मद पर कम या ज्यादा क्यों किया ? फिर लोकल सरपंच आथोरिटी को इसका जवाब देना पड़ता है।फिर लोकल सरपंच बैठक करता है।इसी को बड़े लेबल पर भी करना पड़ेगा।यह जो एलिनीशन है , वह हर स्तर पर है।यह परायापन गॉव में है, शहरों में है , क्यों कि मुद्दा यह है कि हमने जो कल्चर पैदा किया है , उसे  आजादी के बाद बदला नहीं गया है। वह पुराने नजरिए पर आधारित है कि वह राजा है और यह प्रजा है। और जो राजा और प्रजा का रिश्ता है , हम उसी में सुधार करना चाहते हैं। उसे हम पूरी  तरह परिवर्तित करना नहीं चाहते।

वी.पटनायक हर परिवर्तन के साथ यही लगता है कि कोई नया परिवर्तन आएगा  लेकिन ऐसा होता नहीं । नर्ई  नई कमेटियॉं बनती हैं , मगर कुछ भी नया नहीं होता।

डॉ . इन्द्रकुमार गुजराल यही बुनियादी बातें हैं जिसकी मैंने अभी चर्चा की है।जबतक पार्टी को आप डिमोके्रटाइज नही करेंगे तो कौन आएगा ? जिसके पास पैसा होगा वही तो आएगा या जो मसल पावर के बल पर बैठा हुआ है , वह ऊपर आएगा। वही पार्टी में है , पावर में है ।उसे ऐसे लोग चाहिए जो उसकी पावर को बनाए रखने में उसकी मदद करें। उसे इस बात में दिलचस्पी नहीं है कि वह सिस्टम को डेमोक्रेटाइज करे। उसे खतरा अपनी पोजीशन से ज्यादा है।वह अगर प्रेसिडेंट या सेकरेटरी बन गया तो उसे वह बने रहना है।उसे बल्कि इस बात की कोशिश करनी है कि उसका बेटा या बेटी उस पद पर आजाए।यह पूरी तरह अप्रजातांत्रिक स्थिति है कि प्रजातंत्र को अप्रजातांत्रिक दल चला रहे हैं। जो सम्भ्रांत आदमी है , वह यह सब करने का नहीं।उसके पास विकल्प है , वह डॉक्टर बन सकता है ,इंजीनियर बन सकता है। इसलिए वह किसी की खुशामद करने जाएगा नहीं ।अगर जाएगा तो उसे उसका लाभ मिलना चाहिए।लाभ दिखाने के लिए उसे अपनी उपलब्धियॉं दिखानी चाहिए।उपलब्धि है कहॉं ! फिर वह टिकट क्यों दे ? क्योंकि वहॉं हिस्सेदारी की बात आजाती है।उसमें चाहे क्राइम की बात आए या रिश्वत की बात आए।क्योंकि टिकट देते समय आज एक और कल्चर पैदा हो गया  है कि टिकट उसी को दो जो जीत साकता है।यह जो जीतने की नीति है वह स्वयं ही अपने आप में गलत है।क्योंकि जिस आदमी ने सेवा की है , गॉव का विकास किया है , वह टिकट देनेवाले से स्वयं सम्पर्क नहीं कर सकता , क्योकि उसके साथ उसका कोई रिश्ता नहीं रहा है।जब वह गॉंव में काम कर रहा था और बिना किसी पालिटिकल पार्टी के , तो दोनों का संबंध कहॉं था ? टिकट तो दिल्ली में बॅटते हैं , गॉंव में तो बॅटते नहीं।तो आप इस एंगल से सोचें।जब तक राजनीति का प्रजातांत्रिकीकरण नहीं होगा, तब तक कोई परिवर्तन नहीं आ सकता ।आपने यह कभी नहीं सुना होगा कि कोई व्यक्ति अपने पद से अपने-आप हट गया कि अब दस साल हो गये  या पांच साल हो गये, अब मैं हट रहा हूं।वह हटेगा तो अपने बेटे को या अपने किसी आदमी को बिठा कर हटेगा।तो इस प्रकार की कान्सपिरेसी का वातावरण हर पार्टी में हैं।
    डॉ. मदनमोहन तरुण स्वाधीनोत्तर भारत की विदेश नीति में आपका अत्यंत महत्वर्पूण योगदान रहा है।अभी ओसामा बिल लादिन ने जो भारत के सामने चुनौती रखी है, उसका क्या हमारी, विदेश नीति पर भी कुछ प्रभाव पड़ेगा ? क्योंकि बिन लादिन ने यह चुनौती एक साथ अमेरिका और रूस को भी दी है।
      डॉ. इन्द्रकुमार गुजराल देखिए ,विदेशनीति किसी यूनिवर्सिटी में नहीं लिखी जाती।वह रोजमर्रा के जीवन में लिखी जाती है।विदेश नीति सकारात्मक भी होती है और नकारात्मक भी।नकारात्मक तो वह होती है कि उस पर रेस्पान्स करना कठिन होता है।और सकारात्मक तो यह है कि उसका विजन क्या है? वह हमें किस ओर ले जाती है।हमारे यहां चुनौतियों का रूप बदलता रहा है।मगर एक चीज में कोई अतंर नहीं आया।हमारे और पाकिस्तान के रिश्तों में।यह परिवर्तन बहुत कम आया।लोगों के लेबल पर दोनों देशों में तब्दीली हुई है।दूसरी बात यह है कि 50-52 वर्षो का बेहतर हिस्सा निकला है कोल्डवार में।इस ठंडी जंग का हमारे पड़ोसियों के व्यवहार पर भी असर पड़ा।रूस के साथ हमारे रिस्ते अच्छे रहे।उसमें हमारी भी इंटरेस्ट थी।उसे ध्यान में रखते हुए देश अमेरिका के साथ अच्छे संबंध रखते थे,उनके सामने मुश्किलें थीं और इससे चीन और रूस से रिश्तों पर असर पड़ता था।अभी जो समय बदला उसमें दो बातें सबसे ज्यादा उभर कर सामने आयीं। Huntington Samuel P ने जो किताब लिखी है Clash Of Civilization and Remaking of the world order  उससे मैं पूरी तरह सहमत नहीं हूं।क्यों कि यहां सिविलाइजेशन का लफ्ज गलत है।सिविलाइजेशन बहुत सकारात्मक और सिविलाइजिगं होती है।मगर सिविलाइजेशन में जो अपराधीकरण है ,वह फंडामेंटलिज्र्म धार्मिक कट्टरतावाद का रूप ले रहा है।मगर यह ध्यान रखिएगा कि फंडामेंटलिज्म का जितना आक्रमण नॉन इस्लामिक देशों पर है,उससे अधिक इस्लामिक देशों पर है।पिछले बरस यूनाइटेड नेशंस के सेकरिटेरी जेनरल ने एक एमिनेन्ट परसन्स ग्रुप को अल्जीरिया भेजा था।उसके सदस्यों में एक मैं भी था।वहां हम लोग हफ्ता-दो हफ्ता ठहरे थे।वहां कई जगह दौरा किया था ।वहां तो 98 प्रतिशत मुस्लिम हैं।वहा फंडामेंटलिज्म का अटैक क्यों है? पिछले छह - सात वर्षो में,अक्तूबर के महीने तक वहॉं करीब 65 हजार लोगों को मारा गया।कितनी महिलाओं का अपहरण हुआ इसका अंदाज लगाना मुश्किल है।यही उन तमाम मोडरेट किस्म के इस्लामी देशों की हालत है।यह करीब- करीब प्रमादपूर्ण स्थिति है। यह मध्यकालीन आचरण है।अब इस पागलपन को देखकर अजीब लगता है कि मानवजाति की सभ्यता का विकास किस दिशा की ओर हुआ है।सभ्यता की यह यात्रा मुकम्मल नहीं हुई है।कई देशों में हो चुकी है, कई देशों में नहीं हुई है।अफगानिस्तान बदकिस्मती से ऐसा देश है, जहाँ पर बहुत कम हुआ है।बुद्धिज्म जब तक वहां था,तब तक वहां की हालत ठीक थी।आज जो तालिबान का खतरा पैदा हुआ है वह नान इस्लामिक कंटी्रज के लिए ही नहीं ,इस्लामिक कंटी्रज के लिए ज्यादा है और इसीलिए एक नया फ्रंट बना है कि इस आतंकवाद या इस सभ्यता विरोधी प्रवृत्ति को कैसे खत्म किया जाए।

डी . के . पाण्डेय दो तीन वर्षों से जो राजनीतिक अस्थिरता का दौर चल रहा है , उसमें क्षेत्रीय दल उभर कर सामने आ रहे हैं उनक रोल काफी हद तक अहम है। आज चुनाव के समय हर पार्टी यह वादा कर रही है कि हम स्थिर सरकार देंगे।ऐसी स्थिति में क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्थिरता में उनका क्या रोल है ?
डॉ. इन्द्रकुमार गुजराल इसमें दो बातों का ध्यान रखिए जब बातें स्टैबिलिटी या इन स्टैबिलिटी की की जाती है तो एक चीज में बड़ा आंतर है।हमारा देश स्टेबल है।पालिटिकल पार्टियॉं स्टेबल नहीं हैं।पिछले पॉच छह महीनों में हमारी सबसे बड़ी चुनौती थी पाकिस्तान से जंग।इस जंग का सामना हमने जिस कामयाबी के साथ किया यह देश की स्टेबिलिटी का सबसे बड़ा प्रमाण है।आपनै नतो एलेक्शन का समय बढ़ाया न इमरजेंसी इम्पोज कीफिर भी वर का आपने इस तरह सामना किया।यह यही बताता है कि देश स्टेबल है।क्यों कि देश में सिर्फ पालिटिकल इंस्टीट्रयूशन नहीं हैं ,ब्यूरोक्रेसी स्टेबल है , आम्र्ड फोर्सेस स्टेबल हैं , आर्थिक विकास जारी है, इंडस्त्री आगे बढ़ रही है देश का जो सिस्टम है वह स्टेबल है।राजनीतिक दल नये दौर से गुजर रहे हैं।देश की जो बड़ी पार्टियॉ है वे यह बहस पैदा करना चाह रही हैं कि स्टेबिलिटी और हुक्काम का पावर में रहना एक चीज है।यह गलत धारणा है।क्षेत्रीय पार्टियॉं इसलिए उभर कार सामने आ रही हैं क्यों कि पिछले 52 वर्षों में जो देश का विकास हुआ है वह समस्तरीय नहीं हुआ है । जो आसाम की सोच है वह महाराष्ट्र की सोच नहीं है।जो आंध्रप्रदेश की सोच है वह नगालैंड की सोच नहीं है।सब जगह एक मुखर मध्यवर्ग का बहुमत है।यह जो मुखर मध्यवर्ग पैदा हुआ है , वह हर जगह विकास पर गौर करता है।इसलिए उसका सबसे अथिक विश्वास क्षेत्रीय पार्टियों पर है। क्षेत्रीय पार्टियों ने अभी कुल मिला कर  अपने दायित्वों को तसदीक नहीं किया है।मीडिया और प्रोपगैंडा को छोड़ दीजिए , किसी भी रिजनल पार्टी ने अबतक सेंटर की सरकार को स्थिर नहीं किया है।जितनी सरकारें अबतक गिरी हैं उन्हें दो पार्टियों में से किसी एक ने गिराया है।इसलिए यह कहना कि बड़ी पार्टियॉ स्टेबल हैं और छोटी पार्टियॉं स्टेबल नहीं हैं , य गलत बात है।दूसरी बात यह है मैं तीन चार सरकारों में बैठा हूँ , जिनमें रिजनल पार्टियॉं साथ रही हैं। मैं तो तीन चार सरकारें में मंत्री पद पर रहा मगर मुझे अबतक यह याद नहीं है कि किसी रिजनल पार्टी ने कभी कोई ऐसा प्रस्ताव रखा हो जो देश के इंटरेस्ट के खिलाफ जाता हो।दूसरी बात यह देखी है मैंने कि आज देश को जिस संघवाद की ओर जाना चहिए , क्षेत्रीय पार्टियों के आने से उस प्रक्रिया में तेजी आई है।यह देश के लिए अच्छा है।जहॉंतक स्टेबिलिटी की परिभाषा का सवाल है , हम वहॉ एक गलती कर जाते हैं।हम स्टेबिलिटी , स्थिरता ह और कांटिन्यूइटी , निरन्तरता  को एक दूसरे से मिला देते हैं।यह गलत है । प्रजातंत्र में परिवर्तन आवश्यक है।इसलिए जो क्षेत्रीय पार्टियॉं उभर कर सामने आरही हैं , उन्होंने अपने  अपने प्रदेशों में अपनी भूमिका निभाई है।यह प्रशंसा के काबिल है।

डॉ. मदनमोहन तरुण एक जिज्ञासा है कि अस्सी वर्ष से ऊपर की उम्र में भी आप में जो ताजगी है , ऊर्जा है , स्वास्थ्य र्है  उसका रहस्य क्या है ?

डॉ.  इन्द्रकुमार गुजराल ( हल्के से मुस्कुरा कर ) चर्चिल ने जो कहा था मैं वही बात कहता हूँ।मैं कोई खास एहतियात नहीं करता।लेकिन एक बात देखी है मैंने। मैं नहीं जानता लम्बी उम्र क्या है ( मदनमोहन तरुण जीवेमशरदःशतम ! (हॅसते हुए) हॉं , लेकिन एक बात और है, , जो चीजें सेहत को नुकसान करती हैं वे मैंने नहीं लीं।मैंने अपनी लाइफ में कभी ड्रिंक नहीं लिया।मगर यह तो मेरी बात है।चर्चिल ने तो कहा था कि मैं रोज सबेरे सिगार पीता हूँ , फिर भी उनकी लम्बी आयु थी।इन बातों का स्वस्थ्य से ज्यादा ताल्लुक नहीं है , मेन बात तो यह है कि कुछ चीजें नेचर देती है और कुछ चीजें आपको खुद अपनानी पड़ती है।

सुमधुरतापूर्वक सम्पन्न यह वार्ता आज भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। इसमें राजनीति विषयक कई ऐेसी बुनियादी बातें रखी गयी हैं जिनपर गंभिरतापूर्वक विचारने की आवश्यकता है।देश की राजनीति में आज भी शिक्षितवर्ग के आने की समस्या बनी हुई है , परन्तु यह संख्या निस्संदेह बढी है ,परन्तु भ्रष्टाचार के भी ज्यादातर मामले उसी ओर से आरहे हैं। यह स्थिति निराशाजनक तो है , परन्तु इसे झेलने का उपाय निस्सन्देह निराशा या चुप्पी नहीं है।देश के निर्माण में आज भी व्यापक जनान्दोलन और प्रखर नेतृत्व की आवश्यकता है।
आज महत्वाकांक्षाओं से उद्दीप्त राष्टृ ऐसे नेतृत्व की पुकार कर रहा है जो अपनी आँखों से देख सकता हो , अपने पाँवों से चल सकता हो और पूरे राष्ट्र का दिशा -दर्शन करता हुआ उसे शिखर की ओर ले जा सकता हो।
आज २०१२ में जब इस साक्षात्कार का यहाँ प्रकाशन किया जा रहा है तब डाँ. इन्द्रकुमार गुजराल अपनी आयु की ९२ सीढियाँ पार कर चुके हैं।
किन्तु आज वे हमारे बीच नहीं रहे।३० नवम्बर २०१२ को उनका देहावसान होगया।
यह साक्षात्कार उनके प्रति हमारी विनम्र श्रद्धांजलि है।

Friday, November 23, 2012


Chhath Pooja in Bangalore

MadanMohan Tarun




Chhath pooja is basically a festival which is celebrated mainly in Bihar. Now it has traveled in almost all parts of India , wherever people from Bihar have gone. It is now accepted harmoniously everywhere.

Chhath is celebrated twice in a year. On the sixth day of Amavasya in the month of Chaitra (March-April) and on the sixth day after Deepavali in the month of Kartikeya (November), according to Hindu calendar.

It is celebrated regularly by some Muslim families also.

This festival is dedicated to the worship of Lord Sun, the god of light.


Performers of this pooja keep fast for two days. Men and women, stand in the river water or in some pond  facing the sun ,keeping a  SOOP(made of bamboo chips) in their hands, full of fruits , coconut and other fruits.  They offer ARGhYA ,by  flowing milk or water to the sun. The first day pooja is offered to the setting sun and it is concluded next day with the pooja of rising sun.



A bundle of five compact sugarcane with leafs  areplaced before every pooja - performers.
They light earthen lamps (Deepak) before the setting and rising sun.

This is a highly meaningful pooja in my view.

The setting sun is a traveler, who is ready to pass through the darkest valleys of night.

It conveys that everybody has to face darkness in his or her life but it is also true that  finally it is the light which wins.

Worshipping setting sun is an assurance of all to him that they are always with him and they will  continue waiting him till he is back with a new and fresh morning, full of new life.

I watched this pooja in Bangalore this time. It was attended by thousands of people on the both days.
It was organized by ‘Siddharth Sanskritic Sangathan.’ Kannadiga – Bihari Sangathhan , Bangalore.


It was Celebrated in Kalyaani sankey Tank . This 500 year old water body was given this charming shape by architect colonel Richard E Sankey of the Madras sappers Regiment. This huge lake, spread in 37 .1 acres , is an eye chanting place surrounded by beautiful trees and flowers.

Sunday, November 18, 2012

Jalebi


जलेबी

मदनमोहन तरुण

अगर कोई मुझसे पूछे कि दुनियाकी सबसे अच्छी मिठाई कौन सी है तो मैं बिना एक पल भी रुके कहूँगा – जलेबी जलेबी और जलेबी
दुनिया में जलेबी से भी अच्छी कोई मिठाई हो सकती है , यह मैं सोच भी नहीं सकता।
हलवाई की दुकान के पास खडे॰ होकर न जाने कितनी देर तक जलेबी के तैयार होने की जादूई प्रक्रिया देख - देख कर मैं विभोर होता रहा हूँ।
मोटे कपडे॰ की एक छिद्र वाली छलनी में जलेबी का गाढा॰ घोल डाल कर जब उफनते गर्म तेल से भरी कडा॰ही में हलबाई के कलात्मक हाथ गोल- गोल घूम कर कई घुमावों वाली जलेबी को एक नया आकार देदेते हैं और वे गर्म तेल में करारी होकर नाचने लगती हैं तो वह एक शानदार और लुभावना नजारा होता है। कडा॰ही में नाचती पीली -पीली जलेबयाँ मुझे ऐसी लगती हैं जैसे स्वर्ग से पीली रेशमी साडी॰ पहने गोरी - गोरी अप्सराएँ मेरे चारों ओर कल्लोल करती हुई नाच रही हैं। मेरी आँखें मुँद जाती हैं और मैं आनन्द विभोर हो उठता हूँ। इसके बाद जब कडा॰ही की करारी जलेबियाँ चीनी की चासनी के तालाब में उतर कर रस से शराबोर होजाती हैं तब लगता है अप्सराओं ने अपने वस्त्र कहीं और छोड॰ दिये हैं और उनका गुदाज बदन हमें लुभा रहा है। गर्मागर्म रस से शराबोर जलेबियाँ जब मुँह में पहुँचती हैं और जीभ पर सरकती हुई गले से नीचे उतरने लगती हैं तब का आनन्द शब्दों से परे है। लगता है जैसे अंग - अंग रस से सिक्त हो गया है और उनअप्सराओं ने मुझे अपने प्रगाढ॰ आलिंगन में लेलिया है। मेरी आँखें बन्द हो जाती हैं और मैं किसी और लोक में पहुँच जाता हूँ।

Saturday, November 17, 2012

Vaidya ShiromaNi Shrimaan Gangadhar ji Mishra


Vaidya ShiromaNi shrimaan GANGAADHAR JI MISHRA

MadanMohan Tarun

Shrimaan Gangadhar Mishra ji was one of the rare personalities among great vaidya of India, He dedicated his whole life in the service of his patients.

He was born in 1923 at Saidabad, near Jehanabad in Bihar.

He started his medical practice at Jehanabad, after receiving his several degrees in Ayurveda from Patna, under the Supervision of his father Kamleshwar Misra’s younger brother Pandit shri Parmanand ji Mishra.
Parmanand Mishra ji was a great Vaidya as well as a great devotee of Maa Kali and Lord Krishna. He visited Kamrup Kamkyha every year for his tantric saadhana and spent some days in Vrindaavan every year. We have heard many stories of his rare experiences. Shri Gangadhar Mishra took nobody greater than him. He named his Aushdhaalay as PERMANAND AUSHDHALAY and his huge house as PERMANAND BHAVAN.

He prepared all his medicines at home. It was done under the supervision of his father  Pandit Kamleshwar mishra ji. He had huge number of helpers for this job. It was done at saidabad. At times work continued for the whole night. Some of the Ashavas and Arishts were kept under ground for years together. Mahaa NaraayaN tail and other oils and Chyavan praash were prepared like celebrations. People worked with interest, enthusiasm , care and as a compact team, more like  family members. They all were cared properly.

He cured many patients suffering from Paralysis and had lost all hopes of life after going through all the allopathic and other treatments.

He was also known for his treatment to those ladies who had lost their hope of becoming mother in their life. There are big number of such ladies who worshiped him as god.

He offered food and medicine both to his poor patients.
He led a busy life.

He never returned  home from his dispensary before 12 o’clock at night.

His family had standing instruction to wake him up at any odd time, if a patient comes.
Patients came to him from all parts of India.


He used to write few pages of his book ‘MERE DWAARAA  PRAYUKTA, ANUBHOOT EVAM  AAVISHKRIT AYURVEDICAUSHAHIYAAN’ whenever he got time. It contained seven hundred hand written pages. But presently its manuscript is missing somewhere. It is a great loss.

He took one kg. of pure milk of his  own black cow. He walked from his home to his garden daily. He was a great lover of maaldah mangoes of his garden. Among sweets he liked rasgulla maximum. He shaved regularly.  He used Silk –kurta and superfine best possible dhoti available in the market. His shoes were always shining. Among hotels he never forgot to visit Soda -fountain at Patna. This was one of the best hotels of Patna during those days. He watched films of his choice time to time. He had a royal personality and led a royal life. He donated a lot to the institutions, temples and people in need, silently. In spite of leading a very busy life , he traveled a lot.
 He was the only son of his parents. Till he was above sixty and his mother was alive, she used to make him sit in her lap and kiss him, before he left for his dispensary in the morning.
His wife Smt. Lakhpati Devi ,took his maximum care. She was the backbone of the family and cared each and every member of her family and visitors.

Basically ,, and by all means Shrimaan Gangadhar ji Mishra was only and only a dedicated doctor , who loved and cared his patients maximum. He never cared of his rest if any of his serious patient needed his attention.

He was awarded by the chief minister of Bihar Shri Nitish Kumar ji for his outstanding ability and services given to his patients.


This great personality of India left this world for his heavenly abode on 12th January 2010.



Copyright reserved by MadanMohan Taun




Monday, November 12, 2012

Vaidya ShiromaNi shrimaan GANGAADHAR JI MISHRA


Vaidya ShiromaNi shrimaan GANGAADHAR JI MISHRA

MadanMohan Tarun

On this day of Dhanvantari Jayanti, it is a great pleasure to remember a great vaidya of India, Shrimaan Gangadhar ji Mishra.

He dedicated his whole life in the service of his patients.

He was born in 1923 at Saidabad, near Jehanabad in Bihar.


He started his medical practice at Jehanabad, after receiving his several degrees in Ayurveda from Patna Ayurvedic University, under the Supervision of his father Kamleshwar Misra’s younger brother Pandit shri Parmanand ji Mishra.

Parmanand Mishra ji was a great Vaidya as well as a great devotee of Maa Kali and Lord Krishna. He visited Kamrup Kamkyha every year for his tantric saadhana and spent some days in Vrindaavan every year. We have heard many stories of his rare experiences.

 Shri Gangadhar Mishra took nobody greater than him. He named his Aushdhaalay as PERMANAND AUSHDHALAY and his huge house as PERMANAND BHAVAN.

Shrimaan Gangadhar Mishra ji was worshiped as god by many in his life time. There were huge number of people to touch is feet on the way, when he started from his home for his dispensary.

He cured many patients suffering from Paralysis and had lost all hopes of life after going through all the allopathic and other treatments.

He was also known for his treatment to those ladies who had lost their hope of becoming mother in their life.

He offered food and medicine both to his poor patients.

He led a busy life.

He never returned home from his dispensary before 12 o’clock at night.

His family had standing instruction to wake him up at any odd time, if a patient comes.

Patients came to him from all the parts of India.

He was awarded by the chief minister of Bihar Shri Nitish Kumar ji for his outstanding ability and services given to his patients.

This great personality of India left this world for his heavenly abode on 12th January 2010.

Copyright reserved by MadanMohan Tarun