Sunday, September 7, 2014

EKOHAM DWITEEYO NAASTI



एकोहऽम द्वितीयो नास्ति
मदनमोहन तरुण
प्रकृति फूलों की हरियाली में , पक्षियों के कलरव - कूजन में, उनके उडा॰न भरते पंखों के शत - सहस्र रंगों में ,निर्झर -प्रपातों में, सूर्य की रश्मियों से आकाश के रंजन में, चाँद - सी रातों में खिल कर , तारों सी घोर अंधकारों में चमक - दमक कर अपने आह्लाद की अभिव्यक्ति करती है , जन - जीवन को प्रसन्नता और सम्पन्नता से भर देती है और यही जब क्रुद्ध होती है जो समूचे आकाश पर विकट विनाश की घटा बन कर , विद्युत - तरंगों में तमक - दमक कर विकट अट्टहास करती हुई समस्त दिशाओं को घेर कर बरसती हुई जल- प्रलय उत्पन्न कर देती है , सूखे को सागर बना कर अपनी उत्ताल अनवरोधित धारा में गाँवों , नगरों, जंगलों , ऊँचे - से - ऊँचे , सुदृढ॰ - से - ,सुदृढ॰ निर्माणों को क्षण भर में सत्ताविहीन करती हुई विशाल पर्वतों को विदीर्ण कर उन्हें रौंद डालती है और अपनी एकमात्र सत्ता की इयत्ता प्रमाणित करती हुई सबको उसकी सीमाएँ बता देती है।
हमारी सत्ता के प्रत्येक पक्ष पर मात्र उसी अप्रत्यक्ष का शासन है जो अनेक रूपों में समय - समय पर स्वयं को प्रकट करता रहता है।

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