हमारा
शरीर , हमारा सर्वोपरि देवता
मदनमोहन
तरुण
समस्त
दैवी सत्ताओं में ,
हमारा
शरीर सर्वोपरि देवता है।
शरीर
की सत्ता के बिना हमारा कोई अस्तित्व नहीं।
जबतक
हमारा शरीर है, तभी तक हम हैं; यह संसार है ; लोग हैं; समाज है; परिवार है।
हमारा
शरीर ही देखता है ।इसी के कारण विभिन्न आकारों में परिव्याप्त संसार की सत्ता का
बोध होता है; शरीर ही सुनता है; यही ग्यान है; यही ध्यान है; इसी मे हमारे प्राण - पुरुष जीवन का
अधिवास है।
यह
शरीर पिण्ड में समग्र ब्रह्माण्ड है।
खुली
आँखों की दुनिया अलग है और बन्द आँखों की दुनिया अलग।
जैसे
ही हम अपनी आँखें बन्द करते हैं ,वैसे ही हमारे सामने एक नयी दुनिया खुल जाती है …. विशाल… अनन्त… और जब हम ध्यान की गहन प्रक्रिया से
गुजरने लगते हैं तब
शरीर की सत्ताबका बोध समाप्त हो जाता है। हम समस्त ब्रह्माण्ड में परिव्याप्त हो
जाते हैं। शरीर महाकाश में परिणत हो जाता है
यह आनन्द से महानन्द की यात्रा है।उस आत्म की
प्राप्ति है जिसके बिना हमें शंति नहीं मिलती , जीवन की पूर्णता का अनुभव नहीं होता।
यह
शरीर हमारा मंदिर है , यहीं
हमारे देवता का अधिवास है, यही
हम हैं ।
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